Sunday, 10 May 2015

Zehar/ ज़हर written by Jagdish Chandra Sharma

                              ज़हर (जगदीश चन्द्र शर्मा)

यह नाटक भी मैंने माध्यमिक मिश्रित समूह अथवा कक्षा पाँच ,छ : और सात के साथ किया और बच्चों ने केवल इस नाटक को करने में आनंद दिखाया बल्कि इस नाटक की शिक्षा भी समझी कि ईर्ष्या का ज़हर गलत काम करने की और प्रेरित करता है । जैसे कि स्वयं नाटककार ने भी इस नाटक की प्रस्तावना में लिखा है - बच्चे स्वभाव से ही शरारती होते हैं, लेकिन कभी अनजाने ही अपने सहपाठी को अध्यापक की नज़र में नीचा दिखाने के लिए गलत कार्य करते हैम। ईर्ष्या का ज़हर उन्हें गलत कार्य करने के लिए प्रेरित करता है । अच्छे मित्र की नम्रता तथा स्नेह को प्राप्त कर ईर्ष्या का ज़हर नष्ट हो जाता है । इस नाटक का उद्देश्य  समय पर काम करना तथा सदगुणों का विकास करना है । 

पात्र परिचय - अध्यापक तथा विद्यार्थी-राजू, तनसुख और मोहन । 
                                           पहला दृश्य (विद्यालय में पाँचवा घंटा बजता है। कक्षा में सभी विद्यार्थी विराजमान है ।)अध्यापक- (कक्षा में प्रवेश करते ही छात्रों के अभिवादन का उत्तर देते हुए उन्हें बैठने का निर्देश देते हैं ।) लिखित कार्य की कॉपियाँ एकत्रित कर लो । (कॉपियाँ एकत्रित कर लिए जाने पर) ठीक है कॉपियाँ आ गईं । हाँ , जिन्होंने कॉपियाँ नहीं दीं वे  खड़े हो जाएँ । (राजू के खड़े होने पर) तुमने आज भी काम नहीं किया? राजू- (गिड़गिड़ाते हुए) सर ……… अध्यापक- बहाने बनाना सीख गए हो । राजू - नहीं सर,बहाना नहीं है । मेरी कॉपी मिल नहीं रही । अध्यापक - परसों भी नहीं मिली थी और तुम बता रहे थे कि तुमने लिखित कार्य किया था। राजू- जी हाँ , किया था । कॉपी मिली नहीं । घर पर बहुत खोज की । मित्रों से भी पूछा । अध्यापक-फिर?राजू - उसी दिन बाज़ार से नई कॉपी लाया । नई कॉपी में काम किया और आज फिर वह भी गायब है , सर । अध्यापक- लगता  है, तुमने झूठ से मित्रता कर ली हैका प्रबंध करो ।  । राजू- नहीं सर, सत्य से मित्रता इतनी कमज़ोर नहीं की उसे छोड़ दूँ । सत्य सत्य है और झूठ झूथ। मैं ईमानदारी से निवेदन कर रहा हूँ । अध्यापक- कक्षा में तुम सबसे होशियार लडके हो। इन दिनों में कॉपी न बनाकर तुम अच्छा नहीं कर रहे । जैसे भी हो, कॉपी का प्रबंध करो । जो बालक नियमित रुप से अध्ययन और लिखित कार्य करते हैं, वे ही निरंतर उन्नति के मार्ग पर बढ़ते रहते हैं । राजू - सर, मेरी पढ़ाई की गति में कोई अंतर नहीं आया है। मैं घर पर नियमित रूप से अध्ययन और लिखित कार्य करता हूँ । आज फिर नई कॉपी लाकर सारा काम करके आपको कल दे दूंगा । अध्यापक - अच्छी बात है ।                                               दूसरा दृश्य       (नेपथ्य से विक्की की आवाज़ और सीटी का दो-तीन बार बजाना ।)तनसुख- (बाहर से आवाज़ देकर ) मोहन!मोहन- (ऊँचे स्वर में ) हाँ , जाओ, अंदर आ जाओ । तनसुख- अंदर क्या आऊँ ! तुम बाहर आओ । मोहन- गाड़ी से उतरो भी तो। आओ, अंदर आओ , बैठो । तनसुख- ठीक है, आया । 
मोहन- क्या प्रोग्राम है ? तनसुख- तुम यहाँ क्या कर रहे हो ? मोहन - गणित का थोड़ा-सा लिखित कार्य बाकी है, उसे कर लूँ । तनसुख - बेमौसम बरसात। छोड़ो , इस झंझट को । रात-दिन लिखित काम । इस लिखित काम के अलावा भी और कोई काम है या नहीं? मोहन - अभी फुरसत में था । सोचा कि काम करना है , कर लिया जाए । तनसुख-ठीक है, कर लेना । काम कोई ज्यादा तो नहीं है । मोहन - अब तुम आ गए हो, बंद कर देते हैं काम को। बैठो, चाय पी लें । तनसुख- चाय रास्ते में कहीं पी लेंगे । मोहन - रास्ते में क्यों? होटल में पैसे खर्च करेंगे और रद्दी चाय मिलेगी । घर की चाय का मुकाबला नहीं । तनसुख- अच्छा भाई , तुम जैसा कहो । मोहन - मैं चाय के लिए दीदी से कह आता हूँ । (उठकर दूसरे कमरे में जाता है ।) तनसुख - अच्छा भाई, तुम जैसा कहो । मोहन - मैं चाय के लिए दीदी से कह आता हूँ । (उठकर दूसरे कमरे में जाता है ।) तनसुख - कह दिया ? मोहन - हाँ, कह दिया। चाय आने वाली है। बोलो, आगे क्या प्रोग्राम रहेगा ?तनसुख - नीली पहाड़ी तक घूम आएँ । आज रविवार जो है। अभी पिताजी घर पर नहीं थे । उनकी विक्की पड़ी थी । उठा लाया और घूमने का प्रोग्राम बना डाला । मोहन - उन्हें ज़रूरी काम से कहीं जाना हुआ तो? तनसुख - रविवार तो छुट्टी का दिन है । अध्यापक -तुमने गणित का काम कर लिया ? तनसुख - दो-चार सवाल कर लिए , दूसरे फिर कर लेंगे । मोहन - कोई नई बात सुनाओ । तनसुख - जब तुमने पूछ ही लिया तो तुम्हें बिलकुल नई बात सुनाता हूँ । मोहन- सुनाओ । तनसुख - किसी को हवा न लगे । केवल तुम्हारे सामने चर्चा कर रहा हूँ और वह भी इसलिए की तुम मेरे प्रिय मित्र हो । मोहन- मैं किसी से नहीं कहूंगा । तनसुख- राजू अपने-आपको तीसमारखां समझने लगा है । मैंने भी उसे सबक सिखाने का बीड़ा उठाया है । 
मोहन - कैसे ? 
तनसुख- यही तो बात है, जो तुम्हें बता रहा हूँ । उसकी गणित की कॉपी मैंने पार कर ली थी। फिर वह नई कॉपी खरीद लाया । उसमें सवाल किए । वह कॉपी भी मैंने उड़ा ली । यह सब काम मैंने बड़ी साफ से किया । किसी को पता भी नहीं चला । उसी का परिणाम है कि उसे कक्षा में बहुत नीचा देखना पड़ रहा है । 
मोहन - हो सके तो कॉपियाँ लौटा देना । वह पढने में होशियार है, काम फिर कर लेगा । 
तनसुख - काम फिर कर लेगा, उसकी चिंता नहिम। उसे अपनी होशियारी पर घमंड हो गया है । उसी की सज़ा वह भोग रहा है । उसे इसका फल मिलना ही चाहिए । 
मोहन- और भी कई तरीके हैं । 
तनसुख - उनमें से यह भी एक तरीका है। इस क्रम को बनाए रखना पड़ेगा , ताकि गुरु जी की नज़रों से वह गिर जे। तुम स्वयं भी देख रहे हो कि वह अपने मित्रों को भी कुछ नहीं समझता । 
मोहन- और भी कई तरीके हैं । 
तनसुख- उनमें से यह भी एक तरीका है । इस क्रम को बनाए रखना पड़ेगा , ताकि गुरु जी की नज़रों से वह गिर जाए। तुम स्वयं भी देखा रहे हो कि  वह अपने मित्रों को भी कुछ नहीं समझता । 
मोहन- वह न समझे , न सही, हमें इसकी चिंता नहीं । 
तनसुख- उसे सबक सिखाना अपना फ़र्ज़ है । वह फिर नई कॉपी लाया होगा । उसमे भी उसने काम किया होगा। उसी सफ़ाई के साथ वह कॉपी भी उड़ा लेंगे । किसी को पता भी नहीं चलेगा । 
मोहन- मैं तो किसी को नहीं कहूंगा ; किन्तु तुमसे मेरा यही कहना है कि तुम अपने इस निर्णय पर फिर विचार करना । तुम मेरे परम मित्र हो । 
तनसुख - मैंने बहुत विचार किया है । अब इस बात को छोड़ो । चाय आ रही है । 
(दोनों मित्र चाय पीते हैं ।)
मोहन- ये बिस्कुट भी लो । 
तनसुख- हाँ -हाँ , चाय अच्छी बनी है।
मोहन- क्यों न बनेगी , घर पर जो बनाई गई है। 
(चाय पीने के बाद ) 
तनसुख- अब चलें?
मोहन - हाँ , चलो । 
(दोनों उठकर चले जाते हैम। नेपथ्य से विक्की की घर्र-घर्र की आवाज़ आती है ।)
                                             तीसरा दृश्य 
               (विद्यालय में कक्षा का दृश्य । पाँचवाँ घंटा बजता है ।)
अध्यापक-(क्रोध से) राजू, आज भी तुमने काम नहीं किया है। फिर वही बहाना? 
राजू- सर, मुझे बहुत दुःख है  कॉपियां कोई चुरा ले जाता है । कल मैंनें दोपहर को गणित के प्रश्न हल किए । उस समय सातवीं कक्षा का सुरेन्द्र मेरे पास बैठा था। आप उससे पूछ सकते हैं । 
अध्यापक - तुम खुद गलत राह पर चल रहे हो और औरों को भी गलत मार्ग दिखाते हो ? 
राजू -सर, मैं गलत मार्ग पर नहीं , सही मार्ग पर चल रहा हूँ । आपको पूर्ण ईमानदारी से विशवास दिलाता हूँ कि मैंने कल तीसरी कॉपी में प्रश्न हल किये थे और दुर्भाग्य से वह कॉपी भी चुरा ली गई । 
अध्यापक- झाँसा मत दो । तुम जैसे होनहार विद्यार्थी विद्यालय की शान हैं और तुम्हीं ऐसा करने लगे। अफ़सोस है। 
राजू- सर, आपकी कृपा से मैं पढ़ाई कमज़ोर नहीं हूँ । जो भी प्रश्न आप बताएँ , आपके सामने श्यामपट्ट पर हल कर सकता हूँ । अन्य सभी विषयों में मेरा काम सुव्यवस्थित और नियमित है। प्रत्येक विषय की कॉपी आप देख सकते हैं । 
अध्यापक- यह गणित ही ऐसा विषय है, जिसकी तुम्हारी कॉपी चुराई जाती है । 
राजू- क्षमा करें, मैं भी इस रहस्य को समझ नहीं पा रहा हूँ । 
अध्यापक- विषय को समझ लेते हो और रहस्य को नहीं, आश्चर्य !
                                            चौथा दृश्य 
                       (तनसुख का मकान । तनसुख बीमार है ।)
राजू- (प्रवेश करते हुए) नमस्ते, तनसुख! अब तबीयत कैसी है? 
तनसुख- आओ राजू, नमस्ते! तबीयत कल अचानक बहुत खराब हो गई । डॉक्टर ने चार इंजेक्शन लगाए । कुछ दवाइयाँ , गोलियाँ बाज़ार से लाईं गईं । दवाइयाँ बराबर ले रहा हूँ । (वेदना से कराहते हुए ), परन्तु पूरे शरीर में हल्का -सा दर्द अभी भी बना हुआ है। कल कुछ उल्टियाँ हुईं थीं । बाद में बुखार आ गया । रातभर तेज़ बुखार रहा । सुबह से कुछ आराम है। 
राजू - दवाइयाँ नियमपूर्वक लेना और घूमना-फिरना बंद रखन। 
तनसुख- ऐसा ही कुछ कर रहा हूँ । 
राजू - दो दिनों से विद्यालय में न आने के कारण मैंने तुम्हारे बारे में पूछा तो मोहन ने बताया कि तुम अचानक बीमार हो गए हो । मैं तुमसे मिलने चला आया । 
तनसुख - धन्यवाद , बहुत अच्छा किया । 
राजू- इसमें धन्यवाद की क्या बात है ? यहाँ आना मेरा कर्त्तव्य था । तुम्हारे स्वास्थ्य के लिए मैं क्या सहायता करूँ? मुझे बताओ । मैं केवल मिलने की औपचारिकता पूरी करने के लिए नहीं आया हूँ । 
तनसुख- तुम्हारे आने मात्र से मुझे परम संतोष का अनुभव हो रहा है । लगता है, तुम्हारे आने से मेरी बीमारी दूर हो गई है । 
राजू - मैं तो चाहता हूँ कि तुम शीघ्र स्वस्थ हो जाओ ।  
तनसुख- तुम धन्य हो, राजू! तुम महान हो। तुम्हारे सामने मैं लज़्ज़ा से झुका जा रहा हूँ । 
राजू- इसमे लज़्जा की कोई बात नहीं । दो मित्रों के मिलने पर एक के मन में लज़्ज़ा कैसे आ सकती है? 
तनसुख- मैं तुम्हारे सामने सचमुच अपराधी हूँ । मैनें भयंकर अपराध किया है ।
राजू-हाँ -हाँ , तुमने अपराध किया या स्वास्थ्य के नियमों की अवहेलना की , एक ही बात है। स्वास्थ्य के नियमों की अवहेलना का परिणाम है बीमार होना। बीमार कोई भी हो सकता है । जाने या अनजाने में ऐसा अपराध सभी से हो जाया करता है। इसमें लज़्ज़ा कैसी?
तनसुख - मैंने दूसरा अपराध किया है । मैंने तुम्हें नीचा दिखाने का अपराध किया है। 
राजू- नहीं-नहीं, यह कैसे हो सकता है?
तनसुख- यह सही है। तुम्हारी गणित की कॉपियाँ चुराने और छिपाने वाला अपराधी मैं ही हूँ ।(संकोच करते हुए) उस अलमारी में तुम्हारी तीनों कॉपियाँ पड़ी हैं । 
राजू - इसमें अफ़सोस की कोई बात नहीं । मैंने फिर कॉपी खरीद ली और काम कर लिया । यह अब किसी से मत कहना। मेरी कॉपियाँ अब तुम्हारी कॉपियाँ हैं ।    
तनसुख- तुम वास्तव में देवदूत हो, मुझे क्षमा कर दो, राजू! अलमारी से निकाल लो अपनी कॉपियाँ और ले जाओ । 
राजू- मैं कॉपियाँ लेने नहीं आया हूँ । तुम मुझे ऐसी सेवा बताओ, जिससे कि तुम जल्दी स्वस्थ हो जाओ । 
तनसुख - मेरे मन में तुम्हारे प्रति भयंकर ईर्ष्या का ज़हर भरा हुआ था । अब तुम्हारे स्नेह का अमृत पाकर वह ज़हर समाप्त हो गया है । मैं बहुत प्रसन्न हूँ । मेरी बीमारी मिट गई समझो । 
राजू- मित्र, यह तुम्हारा बड़प्पन है, जो तुम मुझे इतना महत्त्व दे रहे हो । 
तनसुख - तुम्हारे आने मात्र से ही मेरे तन-मन में चढ़ा हुआ ज़हर उतर गया है । मैं तुम्हारी उदारता का आभारी हूँ । 
                          (ध्वनि संगीत। परदा गिरता है ।) 
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