Sunday, 3 May 2015

Ridh ki haddi written by Jagdish Chandra Mathur / रीढ़ की हड्डी (जगदीश चन्द्र माथुर )


                            रीढ़ की हड्डी (जगदीश चन्द्र माथुर ) 

यह नाटिका छात्र-छात्राओं ने कक्षा दस में जगदीश चन्द्र माथुर द्वारा लिखित नाटक "रीढ़ की हड्डी " को पढ़कर वैली स्कूल की दूसरी हिंदी अध्यापिका गीता खन्ना के निर्देशन में लिखी थी ।  कक्षा दस की  मौखिक परियोजना के लिए छात्रों  ने नाटक  को इस नाटिका के रूप में लिखा और फिर उसे प्रार्थना सभा में अभिनीत किया । इस तरह की क्रियाओं को छात्र-छात्राओं की सृजनात्मक योग्यता को बढ़ाने के लिए किया जाता है । ऐसी क्रियाओं से छात्र-छात्राओं का आत्मविश्वास बढ़ता है । छात्रों ने इस नाटक  को वर्तमान वातावरण से जोड़ने के लिए आधुनिक वस्तुओं और उपकरणों का प्रयोग किया है ताकि नाटिका वर्तमान से जुडी लगे और लोगों को आनंद आए ।


पात्र - रामस्वरूप, रतन, प्रेमा, गोपालप्रसाद , शंकर, उमा । 



(रामस्वरूप का घर । बहुत ही मामूली तरह से सजा हुआ । बहुत काम फर्नीचर । अंदर के दरवाजे से एक छोटी उम्र का लड़का आता है , वह घर का नौकर है । फिर उसके पीछे-पीछे एक अधेड़ उम्र का आदमी आता है जो घर का मालिक है ।)
रतन -(गाना गा रहा है )
(रामस्वरूप घर का मालिक अन्दर से आता है ।)
रामस्वरूप - अरे रतन, हमने जो कोरामंगलाके फर्नीचर वालों से ……… (रतन सुन नहीं रहा है ,  गुस्से से )- रतन ! 
रतन- जी, जी साहब !
रामस्वरूप- (गुस्से से ) हमने जो कोरामंगला के फर्नीचर वालों से फर्नीचर मंगवाया था , वो आ गया क्या ? 
रतन- वो ? मैंने उन्हें एस एम एस भेज दिया है । आते ही होंगे । 
रामस्वरूप- अच्छा ठीक है । जाकर अंदर से मेरा सूट लेकर आ । 
(रतन जाता है और रामस्वरूप सामान ठीक करते हैं ।) (प्रेमा अंदर के दरवाजे से आती है ।)
प्रेमा - अरे बाबा ! अभी-अभी तुम्हें डेनिम जैकिट की क्या ज़रूरत है? 
रामस्वरूप- (चौंककर) डेनिम जैकिट ? 
प्रेमा - हाँ ! तुम्हीं ने तो मंगवाया था रतन से कहकर । 
रामस्वरूप- (गुस्से से) रतन !!! (रतन आता है ) मैंने तुझसे सूट मंगवाया था ना ? यह जैकिट क्यों भेजी? तुझे मैं सोलह साल का दिखता हूँ जो यह जैकिट पहनूंगा ? तुझे मेरी गंजी खोपड़ी नहीं दिखती क्या ? 
रतन - ही ही ही ही । दिखती है साहब । 
प्रेमा- अच्छा छोड़ो ! रतन जाकर बाबूजी की वॉर्डरोब से सूट लेकर आ ....... । 
रामस्वरूप- और मेमसाहब के कमरे से गिटार भी ले आना । और मेरा सूट भी । (प्रेमा जाती है  रतन के साथ) 
(रतन आता है गिटार और सूट लेकर )
रामस्वरूप - हाँ! इधर दे । बस! वह फर्नीचर वालों का क्या हुआ ? 
रतन - ओ ! वो ? वो तो , कब के आ गए । मैं सामान लेकर आता हूँ । 
रामस्वरूप- रुक , मैं भी चलता हूँ  । 
(रतन और रामस्वरूप कुर्सी उठाने आते हैं ।)
(अचानक रतन एक कुर्सी गिरा देता है ।)
रामस्वरूप- अरे मूर्ख ! क्या कर रहा है? हमारा सामान नहीं है,  किराए का सामान है । धीरे रख । 
रतन- ही ही ही । (सामान उठाते हुए )
रामस्वरूप- हाँ , अब इसे धीरे रख । अरे! बेफालतू में क्यों हंस रहा है ? तू यह छोटी-सी केन की कुर्सी को नहीं उठा सकता? मैं तो अभी-भी रोज़ शाम को ज़िम में जाकर डम्बल्स उठाता हूँ । जाकर जल्दी से मेमसाब के साथ टेबल क्लॉथ भेज । जा जल्दी । 
(रतन जाता है । प्रेमा टेबिल क्लॉथ के साथ आती है ।)
रामस्वरूप- उमा किधर है? वह तैयार हो गई क्या ?
प्रेमा- तुम्हारी बेटी ! जब उसे पता है कि लड़के वाले उसे देखने आ रहे हैं फिर भी वह कंप्यूटर पर बैठी है। और, मैंने जब तैयार होने को कहा तो कहती है की वह अपने प्रोफेसर से बात कर रही है जो यू एस ए में है , वो भी पढ़ाई के बारे में बात कर रही है । 
रामस्वरूप- तुम, उसकी माँ, किस मर्ज की देव हो ? इतनी मुश्किल से तो लड़का मिला है । तुम्हारी गलती से सारा बना-बनाया काम बिगड़ जाएगा । 
प्रेमा- तो मैं क्या करुं? साड़ी कोशिश करके हार गई । तुम्हीं ने उसे पढ़ा-लिखाकर सिर पर चढ़ाया है । मुझे तो समझ मे नहीं आता है कि  यह सॉफ्टवेयर इंजीनियर -विंजिनियर क्या होता है ? हमने तो ग्यारहवीं और बारहवीं कर ली और बस हो गई पढाई । आजकल की लड़कियाँ तो सॉफ्टवेयर इंजीनियरिंग के नीचे बात ही नहीं करतीं । 
रामस्वरूप- सुबह-सुबह जैसे सुनैना लाल एफ एम पर शुरू होती है, वैसे ही तुम्हारा रेडियो जब शुरू होता है तो बंद ही नहीं होता । बोलती ही जाती हो, बोलती ही जाती हो । 
प्रेमा - अब मेरा मज़ाक मत उड़ाओ । ये बताओ कि लड़केवालों के आने में कितनी देर है ?
रामस्वरूप- क्यूं ? तुम्हें  क्या जल्दी लगी है? 
प्रेमा- तुम्हीं ने तो कहा था कि उमा को साड़ी पहनाकर और मेक अप करवा कर लाना । पर तुम्हारी बेटी तो कंप्यूटर से हटती ही नहीं है । मैंने सारा सामान उसके सामने रख दिया है पर वह उसे देखती भी नहीं । ऊपर से कहती है कि जो वो बहनजियो की तरह साड़ी भी  नहीं पहनेगी । 
रामस्वरूप- न जाने कैसा दिमाग है इस लड़की का । कंप्यूटर पर ही चिपकी रहती है । 
प्रेमा - मैंने तो कहा था कि बारहवीं तक ही पढ़ाना पर तुम ही ……… 
रामस्वरूप- (बात काटते हुए ) चुप रहो । लडके वालों के सामने कुछ कह मत देना कि तुम्हारी लड़की कंप्यूटर पर काम करती है । 
प्रेमा- अच्छा, मैं कुछ नहीं कहूंगी । 
रामस्वरूप- जाकर जल्दी  से  उमा को तैयार करो । मेक अप नहीं लगाएगी तो ऐसे ही भेज देना । अरे हाँ , नाश्ता तैयार है क्या  ? 
प्रेमा - हाँ , नाश्ता तैयार है । मैंने कासापिकोला से पास्ता, नीलगिरि स्टोर से बर्गर और के सी दास के रसगुल्ले मंगवा लिए हैं । पर हाँ , पेस्ट्री नहीं आईं अभी तक । 
रामस्वरूप- क्या? पेस्ट्री नहीं आईं? जल्दी से रतन को भेजो पेस्ट्री लेकर आएगा  । 
प्रेमा - हाँ  । दो ही आदमी हैं ना ? 
रामस्वरूप- हाँ , वैसे तो दो ही आदमी हैं । एक बाबू गोपालप्रसाद और एक उनका बेटा शंकर । उमा से कहना की ज़रा कायदे से रहे । ये लोग ज़रा ऐसे ही हैं । गुस्सा तो मुझे बहुत आता है उनके  दकियानूसी ख्यालों पर । खुद पढ़े-लिखे हैं , वकील हैं । सोसायटी मे सभी पार्टियों में जाते हैं पर लड़की, कम पढ़ी-लिखी चाहिए । 
प्रेमा - और लड़का? 
रामस्वरूप- बताया तो था तुम्हें। बाप सेर है तो लड़का सवा सेर । बी एस सी करने के बाद मेडिकल कॉलेज में पढ़ रहा है । उसे भी अपने बाप  की तरह कम पढ़ी-लिखी लड़की चाहिए । 
(अचानक बाहर के दरवाजे से रतन आता है ।)
रतन- बाबू जी ! बाबू जी!
रामस्वरूप- क्या है ? 
रतन- शायद वो आ गए । 
(रामस्वरूप दरवाजे की ओर देखता है और चौंकता है ।)
रामस्वरूप अरे  प्रेमा , वो लोग आ गए । जल्दी से जाकर उमा को तैयार करो । और पेस्ट्री? हाय  राम, पेस्ट्री नहीं आईं । रतन ,  तू जाकर पेस्ट्री लेकर आ । अरे,  आगे के दरवाजे से नहीं , पीछे के दरवाजे से जा । 
(रतन और प्रेमा जाते हैं । रामस्वरूप दरवाजा खोलता है ।)
रामस्वरूप - आइए, आइए.……… हं  हं । 
( बाबू गोपालप्रसाद और उनका लड़का शंकर अंदर आते हैं । आँखों  चालाकी  या जिज्ञासा टपकती है । आवाज से पता चलता है कि वे काफी अनुभवी और फितरती महाशय हैं । शंकर  की कमर सीधी नहीं है । पहले से ही वे रामस्वरूप के परिवार के लक्षण जानना चाहते हैं । )
रामस्वरूप- इधर तशरीफ लाइए ……… हं  हं । 
( बाबू गोपालप्रसाद, शंकर और रामस्वरूप बैठ जाते हैं ।) 
रामस्वरूप- हं हं....... मकान ढूंढने में कोई तकलीफ तो नहीं हुई ?
गोपालप्रसाद- नहीं । टॅक्सीवाला जानता था । हमें यहाँ आना ही था । रास्ता कैसे नहीं मिलता ? 
रामस्वरूप- हं  हं  हं , यह तो आपकी बड़ी मेहरबानी है । मैंने आपको तकलीफ तो दी ……… 
गोपालप्रसाद- अरे, नहीं साहब ! जैसे मेरा काम, वैसा आपका काम । आखिर लडके की शादी तो करनी ही है । बल्कि यो कहिए की मैंने आपके लिए खासी परेशानी कर दी । 
(लडके की तरफ मुखातिब होकर ) 
रामस्वरूप- कहिए शंकर बाबू, कितने दिनों की छुट्टियाँ हैं ? 
शंकर- जी, कॉलेज की तो छुट्टियाँ नहीं हैं । मैं "वीक एंड " में चला आया । 
रामस्वरूप- तो आपके कोर्स ख़त्म होने मे तो अब साल भर रहा होगा? 
शंकर- जी, यही कोई साल -दो साल । 
रामस्वरूप- साल - दो साल ?
शंकर- हं हं  हं ……… जी , एकाध साल का "मार्जिन " रखता हूँ । 
गोपालप्रसाद- बात यह है साहब, यह शंकर एक साल बीमार हो गया था । क्या बताएं? इन लोगों को इसी उम्र मे सारी बीमारियाँ सताती हैं । एक हमारा ज़माना था की स्कूल से आकर दर्जनों कचौड़ियाँ उड़ा जाते थे , मगर फिर जो खाना खाने बैठते तो वैसी की वैसी ही भूख । 
रामस्वरूप- कचौड़ियाँ भी तो उस जमाने मे पैसे की दो आती थी । 
गोपालप्रसाद- जनाब, यह हाल था की चार पैसे में ढेर -सी बालाई आती थी और अकेले दो आने की हज़म करने की ताकत थी , अकेले ! और अब तो बहुतेरे खेल वगैरह भी होते हैं स्कूलों मेम । तब न कोई वॉलीवाल जानता था और न टेनिस,  न ही बैडमिंटन  । बस कभी हॉकी या कभी क्रिकेट कुछ लोग खेला करते थे । मगर क्या मज़ाल की कोई कह जाए कि  यह लड़का कमज़ोर है । 
रामस्वरूप- जी हाँ , जी हाँ ! उस जमाने के बात दूसरी ही थी । हं  हं  ....... 
गोपालप्रसाद - माफ कीजिएगा बाबू रामस्वरूप, उस जमाने की अब याद आती है , अपने को ज़ब्त करना मुश्किल हो जाता है । 
रामस्वरूप- हं  हं  हं  ……… जी हाँ  , वह तो रंगीन ज़माना था .......... रंगीन ज़माना । हं  हं  हं  । 
(गोपालप्रसाद की आवाज़ और तरीका बदलता है । वे गम्भीर हो जाते हैं ।)
गोपालप्रसाद- अच्छा तो साहब, ....... बिजनेस की बातचीत हो जाए । 
रामस्वरूप- "बिजनेस"? ओह! बिजनेस! ....... अच्छा, अचा। लेकिन ज़रा नाश्ता तो कर लीजिए । 
गोपालप्रसाद- यह सब आप क्या तकल्लुफ करते हैं । 
रामस्वरूप- हं  हं  हं । तकल्लुफ किस बात का ? हं  हं  हं ! यह तो मेरी बड़ी तकदीर है कि आप मेरे यहाँ तशरीफ लाए , वरना मैं किस काबिल हूँ । हं  हं.......माफ कीजिएगा ज़रा , अभी आता हूँ । 
(रामस्वरूप अंदर जाते हैं। )
गोपालप्रसाद- आदमी तो अच्छा है और हैसियत भी अच्छी है। पता तो चले की लड़की कैसी है ? झुककर क्यों बैठे हो ? कमर सीधी करो । शादी करने आए हो । तुम्हारे दोस्त सही कहते थे, तुम्हारी बैकबोन ..........
(रामस्वरूप हाथ में ट्रे पकड़े हुए अंदर आते हैं )  
शंकर- सुना है , सरकार कोका कोला पर टैक्स लगाएगी । 
गोपालप्रसाद- सरकार को तो एक ही चीज पर टैक्स लगाना चाहिए और वो ही खूबसूरती पर टैक्स । आज का ज़माना तो देख लो , कितनी सारी लड़कियाँ मिस वर्ल्ड और मिस यूनिवर्स बनने चली हैं । हमारी औरतों को यह काम सौंपा जाए तो हर औरत मिस वर्ल्ड बनने चली जाएगी । 
रामस्वरूप- सही कहा आपने (नाश्ता आगे करता है )
गोपालप्रसाद- रामस्वरूप जी , हमने तो पहले ही कहा था कि हमें खूबसूरत लड़की चाहिए। 
रामस्वरूप- जी हाँ , आप उसे अभी देख लीजियेगा । 
गोपालप्रसाद - अच्छा, मैंने सुना था पढ़ाई  के बारे में ………साफ बात है रामस्वरूप जी, हमें ज्यादा पढ़ी-लिखी लड़की नहीं चाहिए । सिर्फ ग्यारहवीं , बारहवीं, बी.ए पास ठीक है । 
रामस्वरूप - जी हाँ ! कुछ लीजिए । 
गोपालप्रसाद- जी नहीं । शुक्रिया ।  
रामस्वरूप - प्रेमा, ज़रा को भेजना । 
(उमा और प्रेमा दोनों आते हैं ।)
रामस्वरूप- यह है मेरी बेटी उमा । 
उमा - हेलो !
गोपालप्रसाद और शंकर- चश्मा ?
गोपालप्रसाद- आपकी बेटी चश्मा लगाती है और आपने हमें बताया तक नहीं और .... और यह पहनावा ।  
रामस्वरूप- वो क्या है कि उसकी आँखों मे दर्द  हो गया था तो चश्मा लगवा दिया । 
गोपालप्रसाद- ज्यादा पढ़ाई तो नहीं करती है ? 
रामस्वरूप- नहीं, नहीं , पढ़ाई से नहीं । 
गोपालप्रसाद- अच्छा, क्या इसे सिलाई, कढ़ाई, संगीत आता है ? 
रामस्वरूप- हाँ , इसे संगीत आता है, गिटार बजा लेती है, उमा गिटार बजाओ । 
(प्रेमा गिटार उठा कर उमा को देती है ।)
प्रेमा- मैं अभी आई । 
(प्रेमा घर के अंदर चली जाती है । उमा गिटार बजाती है और अंग्रेजी गाना गाती है। गाते-गाते उसकी नज़र शंकर पर पड़ती है और वह चुप हो जाती है ।)
रामस्वरूप- क्या हुआ उमा? चुप क्यों हो गई?
उमा- क्या जवाब दूं  डैड ? यह लोग मुझे टेबिल-कुर्सी की तरह देख रहे हैं । मैं कोई चीज हूँ क्या? पसंद आए तो ठीक, नहीं तो ……… 
रामस्वरूप- चुप रहो उमा । 
उमा - नहीं, अब मैं ज़रूर बोलूंगी  डैड । ये जो महाशय खड़े हैं जिनमें से एक इतना लम्बा है कि  ऊपर देखना पड़ता है और एक इतना छोटा है कि नीचे देखना पड़ता है । इनसे पूछिए कि लड़की का दिल नहीं होता क्या ? क्या उन्हें दुःख नहीं पहुंचता ? 
गोपालप्रसाद-रामस्वरूप जी, क्या आप ने मुझे मेरा मज़ाक उड़ाने के लिए यहाँ बुलाया था ?
उमा - जी हाँ । और हमारी बेइज़्ज़ती कुछ भी नहीं । ज़रा इन साहबजादे से पूछिए कि पिछले साल ये लड़कियों के हॉस्टल में क्या कर रहे थे और वहाँ से कैसे भगाए गए थे ? 
शंकर- बाबू जी, चलिए । 
गोपालप्रसाद- लड़कियों का हॉस्टल .......... क्या तुम कॉलेज गई हो ? 
उमा- हाँ । मैं सॉफ्टवेयर इंजीनियर हूँ । मैंने ज्यादा पढ़कर कोई पाप नहीं किया। आपके बेटे ने तो होस्टल की लड़कियों के पीछे घूमकर कायरता दिखाई है। मुझे अपनी इज़्ज़त, मान, मर्यादा का ख्याल है पर आपके बेटे को तो नौकरानी के पैर पकड़कर भागना पड़ा । 
गोपालप्रसाद- बस, हो चुका । हम अब यहाँ हरगिज़ नहीं रुकेम्गे। बेटा शंकर, चलो । सॉफ्टवेयर इंजीनियर....... 
उमा - जी हाँ , जाइए। पर एक बार घर जाकर पता लगा लीजिए कि आपके बेटे की रीढ़ की हड्डी है या नहीं यानि कि बैकबोन …… बैकबोन । 
(कुर्सी में बैठकर रोने लगती है। प्रेमा अंदर से आती है ।) 
प्रेमा- उमा, रो रही हो ? 
(रतन आता है ।)
रतन - बाबू जी , पेस्ट्री! लेकिन मेहमान कहाँ गए ? 

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