Saturday, 2 May 2015

Kauva aur Ullu (कौव्वा और उल्लू)

                                           कौव्वा और उल्लू 

यह नाटिका मैंने किसी पाठ्य पुस्तक से ली  है जिसका नाम मेरे पास नहीं है पर पढ़कर मुझे यह बहुत पसंद आयी और मैंने इसे कुछ साल पहले मिडिल स्कूल के  साथ यह नाटिका की  थी । इस  नाटिका  के नाटककार का नाम पाठ्य पुस्तक में नहीं दिया गया था ।बच्चों ने इस नाटिका को करते हुए बड़ा मज़ा किया । उन्होंने कौव्वा और उल्लू के  रंग की ट्रेक पैंट और टी -शर्ट पहनी। सभी को इस नाटिका से कौव्वा और उल्लू  के बारे में बहुत जानकारी मिली । इस प्रकार यह नाटिका सभी के लिए काफी ज्ञानवर्द्धक रही। 

( कौव्वा और उल्लू दोनों अपने-अपने पास के पेड़ों पर बैठे हैं । कौव्वा का कोई उचित ठिकाना नहीं-परन्तु उल्लू अपना घोंसला खुद ही बनाता है -कौव्वा का केवल डेना होता है उसमें ही कौव्वी अण्डे देती है और उन्हें पालती है । लोग कौव्वों और उल्लुओं पर तरह-तरह की फब्तियाँ कसते हैं, उनको बुरा-भला कहते हैं । तो आज इन दोनों जानवरों के मन में मनुष्य के प्रति क्षोभ आया और वे एकांत में बैठकर अपनी-अपनी विशेषता पर चर्चा कर रहे हैं ।)

कौव्वा - (ज़रा ज़ोर की आवाज़ में ) कांव -कांव करते हुए चर्चा करते हैं । दादा गुरु !  मुझे बहुत लोग अशुभ और बदनसीब मानते हैं । वे कहते हैं-" जा तेरे घर पर कौव्वे बोलें ।"  आपस में लोग बात करते हुए कहते हैं -"क्यों कांव -कांव करता है ।" कौव्वे की तरह बोलना है तो ठीक-ठीक बोल । बड़े बुजुर्ग कहते हैं उसके  सिर पर कौव्वा बैठ गया - अब कुछ दिनों का ही मेहमान है । अगर किसी औरत के सिर पर कौव्वा बैठ जाए और वह औरत नौजवान हो तो बड़ी-बूढी औरतें यह अंदाज़ा ही नहीं बल्कि छाती ठोककर कह देती हैं की यह औरत बांझ रह जाएगी । जिस बर्तन में चोंच डाल देता हूँ या उस बर्तन का पानी पी जाता हूँ वह शुभ या पीने के काबिल नहीं रहता । 

उल्लू - मेरे प्यारे पोते  ! इतना ही नहीं - बहुत तो यह कहते हैं कि तू यानि कि कौव्वा एक आँख से काना है - बताते हैं जब सीता अपनी पंचवटी से नहाकर बाहर बैठी थी तो तूने उसके चरणों को अपनी तीव्र चोंच से घायल कर दिया था,  तो तूने उसके चरणों को अपनी तीव्र  चोंच से घायल कर दिया था, उसी समय लक्ष्मण महाराज पंचवटी कुटिया की रक्षा कर रहे थे , तुम्हें ऐसा करते देख कर उन्होंने तुम्हारी एक आंख में तीर मार दिया था और तुम्हारी एक आँख फूट गई थी । 

कौव्वा- (हाथ जोड़कर ) दादा गुरु ! यह बात आपकी सही है - सीता जी के चरणों में मैंने लाल मांस के दर्शन किए थे और मेरे मन में बेईमानी और बदनीयती आ गई थी....मेरा मन  चलायमान हो गया था  …  उस लाल सुन्दर मोती को मैंने मांस की बोटी ही समझ लिया था । मैं उसको चोंच से पकड़ कर उसे, उठाकर भागना चाहता था परन्तु उसको उठाने की बजाय मेरी चोंच सीता महारानी को छेद गई और महाबली लक्ष्मण जी ने मुझे तीर भी मार दिया था । यह मानना चाहिए कि  वह व्यवहार अधर्मप्रिय और भ्रमपूर्ण था । इसी सम्बन्ध में किसी कवि ने कहा है  - "पेशी समझ माणिक्य को, वह विहग देखो ले चला ।"

उल्लू-यह दोष तो तुम पर लोग लगाते हैं -तुम्हें मालूम है कि  मेरे सम्बन्ध में लोग क्या-क्या धारणाएं रखते हैं। लोग कहते हैं - अरे, उसके घर अब उल्लू बोलते हैं-खंडहर घर में अब कोई भी नहीं रहा सब मर गए । आप जानते हैं कि किसी को बुरा -भला कहने में , गाली का प्रयोग "उल्लू" कहकर करते हैं । 
उल्लू के नाम से बदनाम करने वाले यहाँ  तक कहते हैं - उस की उल्लू जैसी आँखें हैं । कोई भी मुझे शुभ और खुशनसीब नहीं कहता । यहाँ तक लोग यह कहते हैं कि  यह क्या मकान है , इसमें तो उल्लू बसते हैं । 

कौव्वा - दादा गुरु  ! मेरे लिए क्या कम लांछन और ऐब दिखाते हैं । देखो, कौव्वे जैसा काला है न शक्ल और न सूरत । कौव्वे जैसा काला भूत न रूप न रंग । लोग कहते हैं की जब कौव्वा अपने परम को फड़फड़ाता है तो उसके  इरादों का कुछ पता नहीं किस मुर्दे को नोंचने -कुतरने कहां चला जाए ? हाँ , हाँ  हमें लोग सबसे अधिक सूंघने वाला और तेज़ नज़र का पक्षी बताते हैं । कौव्वे के हर पर में दस अक्ल होती हैं । 

उल्लू - देखो पोते ! लोग जितना भी तुम्हारे बारे में कहते हैं , इसमें कोई भी संदेह नहीं । क्योंकि दोस्तों तुमको सब पक्षियों से चतुर और होशियार समझा जाता है ।  मुझे तो अक्ल की जगह बुद्धू और घू -घू कहते हैं । परन्तु यह सब जानते हैं कि मेरी नज़र सब से अधिक मानी जाती है - सब मुझे गम्भीर और कुशल कहते हैं । मेरे और तुम्हारे उठने -बैठने में फर्क है - तुम रोशनी और खुली जगह में बैठते हो, चिल्लाते रहते हो - इसके बदले मैं बहुत ही गहरी अंधेरी और गुमसुम स्थान में वास करता हूँ और हर समय नहीं बोलता । जब मुझे किसी शिकार का आभास होता है या मेरी अपनी इन्द्रियों को एकाग्र करके उड़ने और भागने का प्रयत्न करता हूँ और अपने गंतव्य स्थान पर शिकार प्राप्त करने पहुंच जाता हूँ । 

कौव्वा - किन्तु दादा गुरु ! मुझमें और आप में थोड़ा अंतर है । 

उल्लू- वह क्या बेटा ?

कौव्वा - मुझे सूचना देने के लिए मेरी जाति  के भाई-बहिन कांव -कांव  की ध्वनि से संकेत दे देते हैं या मैं उनकी कांव -कांव से यह अंदाज लगा लेता हूँ या मेरी जाति के भाई ढेर के ढेर इकट्ठे होकर शिकार पर पहुंचते रहते हैं - मैं भी उनके नक़्शे-कदम पर चल देता हूँ और शिकार से भोजन प्राप्त कर लेता हूँ । लेकिन दादा गुरु  ! शायद आपको कोई संकेत आपकी जाति के दोस्तों से नहीं मिलता । 

उल्लू- बेटे  , मुझको किसी के संकेत , इशारे और सहयोग की ज़रूरत ही नहीं । मैं तो स्वयं ही अपना शिकार खोजता हूँ और उसको मार कर अपने घोंसले में लाकर खाता हूँ । एक बात और है । 

कौव्वा - वह क्या दादा जी ? 

उल्लू - मैं किसी का मारा हुआ शिकार नहीं खाता - मैं शेर की तरह खुद अपने आप मारता हूँ और खाता हूँ , तुम्हारी तरह नहीं की कोई मारे और तुम उसके मरे शिकार को खाओ । मैं राजपूत और क्षत्रिय हूँ -चाहे मुझे महीनों भूखा रहना पड़े किन्तु मुफ्त का शिकार नहीं खाता - मैं अपने हाथ से मारा हुआ हलाल का शिकार ही खाता हूँ । तुम न राजपूत हो न ही क्षत्रिय , तुम तो नीच जाति के शूद्र हो । तुममें कोई गुण नहीं है वास्तव में । दोस्तों, मैं कहना नहीं चाहता कहीं तुम बुरा मान जाओ ।

कौव्वा - नहीं, दादा जी ! कहिए मैं कोई बुरा नहीं मानूंगा । कहिए ! 

उल्लू - बेटे  , तुम अपना पेट अपनी गन्दगी खाकर भी भर लेते हो , लेकिन मैं  किसी भी गन्दगी के पास तक नहीं फटकता । तुम्हें यह याद रखना चाहिए कि  मैं किसी भी जानवर को विवश करके नहीं मारता । फिर मैं उत्तम और पवित्र जल का ही पान करता हूँ और एकाग्रचित्त होकर वृक्ष की कोटर में बैठा रहता हूँ । फिर शायद तुम रात को विश्राम करते हो, क्यों की तुम्हें इतना साफ रात को दिखाई नहीं देता - और मैं देखने में रात का राजा हूँ । मुझे जितना साफ और स्वच्छ रात को दिखाई देता है दिन में नहीं । यानी मुझे रात को दिन से ज्यादा दिखाई देता है । 

कौव्वा- बुरा मानने की क्या बात है , मैं किसी भी गंदगी पर अपनी चोच मार कर पेट भरता हूँ - इसमे बुरा मानने या शरमाने की कोई बात नहीं । मैं हूँ तो बहुत छोटा - मेरी चोंच और पंजे भी इतने मज़बूत नहीं । आपका क्या है, आप तो महान हैं । एक बार कोई चिड़िया भी आपके पंजों में फंस जाए तो उसका निकालना दूभर है । फिर आपकी चोंच भी इतनी प्रबल है कि उसमें आने पर निकालना अत्यंत कठिन है। दोस्तों! मैं आपसे एक बात पूछता हूँ जो मुझमें एक शंका है?

उल्लू- बेटे ! नि :संकोच पूछिए जो भी तुम्हें पूछना है , मैं बिना शकोशुबाह के तुम्हें बताउंगा । 

कौव्वा- मेरी धृष्टता को क्षमा करिए । 

उल्लू- हाँ , हाँ -बोलो। निडर होकर कहो । 
  
कौव्वा - यह स्वार्थी मनुष्य मेरे या आपके या अन्य पशु-पक्षियों के अवगुण तो निकालते हैं , परन्तु कभी इस खुदगर्ज मनुष्य ने यह भी सोचा है कि  हम लोगों में  कुछ गुण भी हैं अथवा हम उनको कोई लाभ भी पहुंचा सकते हैं या नहीं? 

उल्लू- बेटा ! यह बात तो वास्तव में तुमने बुद्धिमानी की कही । तो तुम अपने ही गुण का वर्णन करो । 

कौव्वा-दादा गुरु ! सुनिए , हम कौव्वे जब कभी किसी दिन आदमी की छत पर बैठ कर लगातार कांव-कांव करते हैं तो इसका मतलब है कि  उस आदमी के घर में कोई व्यक्ति आने वाला है या उनके घर में कोई शुभ समाचार लाने वाला व्यक्ति आएगा या बहुत दिनों का बिछुड़ा आएगा । 

उल्लू - यह तो सबसे बड़ा गुण तुममें है । 

कौव्वा - दादा ! अब आप भी अपने गुणों  का वर्णन करें। 

उल्लू - सुनो बेटे! मैं धन की देवी लक्ष्मी का वाहन यानी सवारी हूँ । मैं जिसकी छत पर लगातार बैठना शुरू कर देता हूँ और वहाँ अपने अंडे देता हूँ तो वह घर मालामाल और धन से भरपूर हो जाता है । 

दोनों - ( हंसते-ताली बजाते प्रस्थान करते हैं) मनुष्य को हमसे लाभ ही उठाना चाहिए । 

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