यह नाटिका मैंने किसी पाठ्य पुस्तक से ली है जिसका नाम मेरे पास नहीं है पर पढ़कर मुझे यह बहुत पसंद आयी और मैं आप सब के साथ बांट रही हूँ । इसे मैं मिश्रित माध्यमिक समूह अथवा कक्षा पांच , छह और सात के साथ अवश्य करूंगी । आशा है कि पाठक वर्ग को पसंद आएगी ।
लोटा, थाली, गिलास, कटोरी और चम्मच बर्तनों की शिकायतें
पात्र- लोटा, थाली, गिलास, कटोरी और चम्मच ।
लोटा- (थाली को सम्बोधित करते हुए) बहिन, इस परिवार के छोट-छोटे बच्चे-किशोर, लड़की-लड़के, स्त्री-पुरुष, बड़े-बूढ़े सब लोग मेरी इतनी मिट्टी पलीद करते हैं कि क्या बताऊँ? इन्होंने मुझे फेंक-फेंक कर मेरे कोने , पेट को ऐसा बैठा दिया है कि मेरा पूरा आकार ही बिगाड़ दिया है । मेरी हालत खराब कर दी है । फिर कभी-कभी तो मुझमेम इतना गर्म पानी भरते हैं कि जल-भुन जाता हूँ । इसके अतिरिक्त कभी तो बर्फ का इतना ठण्डा पानी मुझमें भर देते हैं कि ठण्डक के कारण मैं थर-थर कांप जाता हूँ, कई बार तो मैं बर्फ की तरह जम जाता हूँ । यह निर्दयी आदमी इतना बेरहम है कि अपने स्वार्थ में आकर मुझे इतना परेशान करता है कि खुदा ही लाज रखे । इस परिवार के बच्चे और घर वाले इतने बेरहम हैं कि कभी-कभी तो मुझे खड़े-खड़े ही फेंक देते हैं चाहे मेरा पैर टूटे या सिर फूटे, उनको तो बस अपनी मस्ती से मतलब है !
थाली (सिर पीटते हुए)- भाई लोटे! तुम्हारे साथ तो इतना बुरा बर्ताव नहीं , पर जो बुरा व्यवहार इस परिवार के लोग मेरे साथ करते हैं , मैं क्या कहूँ? गर्म-गर्म जलती सब्ज़ी , दाल-चावल मेरे पर इस बुरी तरह से उड़ेंलते हैं कि मेरा शरीर जल-भुन गया है । इतना ही नहीं , मनुष्य परिवार के बच्चे और नई बहुएँ मुझे फर्श पर इस बुरी तरह से फेंकते हैं कि मेरी कमर की हड्डी-पसली पिचक कर छुहारा बन गई है । मेरे हाथ-पांव, कानों की तो बात ही मत पूछो, उनकी तो इस परिवार ने जो दुर्गति बनाई है कि भगवान ही मालिक हैं । फिर रेत-मिट्टी और विम से मांज-मांज कर , रगड़-रगड़ कर मेरे शरीर को बुरी तरह छील दिया है- मैं बुरी तरह से टूट गई हूँ, लेकिन फिर भी मेरा पीछा नहीं छोड़ते इस आदमी के बच्चे !
लोटा- बहिन! इतने बड़े घर में कोई भी ऐसा रहमदिल और दयालु नहीं कि हम पर ज़रा भी दया करे । सबसे बड़ी बात तो यह है कि इनके नौकर तो बहुत ज़ालिम होते हैं , वे तो कंकरीली ज़मीन में रगड़-रगड़ कर मेरे सारे ज़िस्म से खून निकाल देते हैं । सारे परिवार में एक-आध ही बूढ़ा-बुढ़िया ही ऐसे हैं जो बहुओं और नौकरों से कहते हैं - अरे राम, बेचार बर्तनों को देखभाल कर साफ करो । बेरहमी से साफ मत करो, थोड़ी दया रखो । नौकरों को क्या परवाह- उनको तो हमारी हत्या से काम है ।
थाली- लोटे भाई, हम तो सबका भला सोचते हैं - इनके मेहमान आते हैं , चाहे वे दिल्ली से आएँ या कलकत्ते से या फिर मुम्बई से , हम तो समान रूप से उन सब की सेवा करते हैं । किसी के साथ भेदभाव नहीं रखते । चाहे वह अमीर हो ,चाहे गरीब ।
गिलास- ( यह बात सुनकर गिलास से रुका न गया, वह उछलकर थाली की बगल में आ बैठा ) देखो, चचा लोटे और ताई थाली ! तुम पर यह नालायक मनुष्य इतना अत्याचार करता है, वह सब सुनकर मेरी आंखों में तो आंसू आ गए । वाकई यह सितमगर मनुष्य बहुत ही ज़लील और नाशुक्रा है ! मुझे ही देख लो, सुबह भभकती हुई चाय से मेरा शरीर फूंकता है, रात को गर्म-गर्म दूध से मेरी वह मेहमानी करता है कि बाई गॉड ! मैं सोचता हूँ कि किस निर्दयी के पल्ले पड़ गया । इसके दिल में रत्तीभर भी रहम नहीं है । ये सभी बच्चे, लड़के-लड़कियाँ-लड़कियाँ तुम लोगों की तरह ही मुझे भी फेंक-फेंककर हमारी बेइज़्ज़ती ही नहीं दुर्गति भी करते हैं -चाहे हम रो-रो कर आंसू बहाते रहें और चिल्लाते रहें । पर उनको कसम अपने चहेतों की ज़रा भी उनका दिल पिघलता नहीं । बल्कि वे तो हमें चिड़ा-चिड़ाकर और ज़्यादा बुरा बर्ताव हमारे साथ करते हैं ।
लोटा और थाली- बेटे, तुम बावन तोले पाव रत्ती सही वाली बात कहते हो, मगर नक्कारों की आवाज़ में तूती की कौन सुने! बेटे, हमने तो अपने ऊपर हुए ज़ुल्मों की शिकायत परात, नांद, टोकरी से कई बार कही । वे जब कभी हमसे बारात, महफिल, दावतों आदि में मिले तब उन सब बेचारों ने हमारी मुसीबत को बड़े ध्यान से सुना- लेकिन वे हमारे लिए न कोई नसीहत दे सके, न ही कोई उपाय हमें बता सके- कुछ दिनों के बाद वही टांय-टांय, फिस्स ।
गिलास- अजी, आपका क्या है, आपने तो खा-कमा लिया, मगर मुसीबत तो हम जवानों की है-भविष्य में हमारा क्या होगा? क्या यह गुण्डागर्दी इसी तरह चलती रहेगी ? आप हमको कोई रास्ता तो सुझाओ । आप तो इस माहौल में काफी दिनों से पिसते चले आ रहे हो । कोई तो हल निकालो जिससे इस ज़ालिम मनुष्य के हथकण्डों से बच सकें ! चचा, हमने इन झटकों से छुटकारा पाने के लिए टिफनदानों को भी कन्सल्ट किया-परन्तु वे बेचार हमसे भी ज़्यादा दु:खी हैं । (गिलास से सटी हुई कटोरी से सहन न हुआ तो--)
कटोरी- गिलास मामा! आपकी सारी दास्तान मैंने बड़े गौर से सुनी है- मैं आपकी तकलीफों से सहमत भी हूँ-किन्तु, हम तो आपकी पोतियों के बराबर हैं जब इस मनुष्य परिवार के ज़ुल्मों से आपकी ही कोई सुनवाई नहीं हुई तो हम क्या पिद्दी और क्या पिद्दी का शोरबा । आप सबसे बुरी हालत मेरी है । हमारा प्रयोग थाली में होता है, गिलास में भी होता है और ज़रूरत पड़ने पर लोटे में भी मुझे घुमाया जाता है । उबलते हुए दूध, पानी में तो मैं ही अकेली जलती-भुनती हूँ । मेरी हालत इतनी खराब है कि बच्चे तो बच्चे, बूढ़ा, स्त्री-पुरुष सभी मुझे ही फेंक-फेंक कर थका-थका कर बेहोश कर देते हैं । खासकर लोग उबलती चाय, उबलता दूध, गर्मागर्म खिचड़ी, दाल-भात, साग आदि गर्म से गर्म वस्तुओं में मुझको ही झौंकते हैं । मेरे द्वारा ही गर्म से गर्म, ठण्डी से ठण्डी वस्तु को चखते हैं ।
थाली- देखो कटोरी पोती! तुम हमसे ज़्यादा आराम में हो । तुम्हारा प्रयोग तो ज़रूरत पड़ने पर ही होता है, सारी गर्मी-सर्दी तो हमेशा हमको ही झेलनी पड़ती है । तेरा तो बिटिया, काम और प्रयोग बहुत ही कम समय के लिए होता है ।
कटोरी- ताई जी! कोई-कोई बख्त तो मेरा ही इस्तेमाल किया जाता है । तुम्हारा प्रयोग तो बहुत ही कम वक्त के लिए किया जाता है । लोग मेरे साथ तो उठा-पटक बहुत ही करते हैं । छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा व्यक्ति मुझे ऊपर से नीचे पटकने में कोई एतराज नहीं करता । मेरे हाथ-पांव में चोट लग जाती है, सूजन आती है और बहुत दर्द होता है । इस मनुष्य को मुझ पर कोई दया नहीं आती, न ही ज़रा-सा रहम ही ।
थाली- बेटी, यह नालायक मनुष्य अपना स्वार्थ पूरा करता है, चाहे उसके लिए अपने प्राण भी दे दो । उसको इसकी ज़रा-सी भी चिन्ता नहीं रहती । हम लोगों का इस्तेमाल इस बुरी तरह, बेरहमी से करता है कि हम लोगों के शरीर में ज़ख्म हो जाए, चोट लग जाए, उसको हम पर ज़रा भी दया नहीं आती । हम लोग ऐसे इंसान की सालों तक खिदमत करते हैं , लेकिन इस ज़ालिम को हम पर ज़रा भी रहम नहीं । वरना अगर इसके दिल में ज़रा भी दया-धर्म होता, तो हमको देखभाल कर ध्यान से रखता-उठाता लेकिन इसको तो अपनी खुदगर्जी और स्वार्थ से ही काम है । यह तो बस मतलबी है ।
चम्मच- दादा लोटे, दादी थाली, चचा गिलास और ताई कटोरी! तुम सब लोगों ने अपनी-अपनी तकलीफों और मुसीबतों को ज़ाहिर करके अपने दिल को हल्का कर लिया है, एक-दूसरे का दु:ख भी बांट लिया । मुझ सबसे छोटी, सबसे नाचीज़ की तरफ आप लोगों की नज़र ही नहीं गई है, जो आप लोगों के साथ हमेशा रहती है और आप लोगों का मूल्य मेरी वजह से है । किसी को खाना, खाना हो तो चम्मच मांगता है, किसी को लस्सी बनाकर पीनी हो तो मेरी ज़रूरत होती है, गिलास में दूध पीना हो तो चीनी हिलाने के लिए मेरी खिदमत की आवश्यकता होती है । थाली में भोजन परसा जाए, शाक-सब्ज़ी डाला जाए तो मेरी ज़रूरत होती है । चम्मच से ही तो हर सब्ज़ी और उसका रेशा चखा जाता है । चाहे कोई शाक-सब्ज़ी सूखी ही हो, परन्तु मेरे बगैर, खाने वाले मनुष्य को मज़ा नहीं आता । ठीक है, कटोरी की भी खाने में हर वक्त ज़रूरत होती है, परन्तु सब ही अपनी छाती पर हाथ रखकर वास्ता दो कि इस खाने वाले मनुष्य को मेरी कदम-कदम पर जितनी आवश्यकता पड़ती है , क्या और किसी की इतनी ज़रूरत होती है ?
थाली- (चम्मच की शेखी बघारना इसको पसन्द नहीं आया तो वह तुनक कर बोली) बेटी चम्मच, अपनी पाटी में रहो । तेरा प्रयोग तो सिर्फ सौ-दो सौ बरसों से किया जाना शुरू हुआ है- हमारे बुजुर्ग और पूर्वज तो उंगली और हाथ से शाक-सब्ज़ी का मज़ा चखते थे । तुम तो जुम्मा-जुम्मा आठ रोज़ से इसी नई पीढ़ी के कारण प्रकाश में आई हो । आज की इस नखरेबाज़ पीढ़ी ने चम्मच बेटी! तुम्हारी इंपोर्टेन्स बढ़ा दी है वरना कौन पूछता था तुमको! खैर समय की बात है! आज गधों को घोड़ों की जगह मिल रही है-यह सब समय के कारण है। धन्यवाद दो बदलते समय को ।
लोटा- (थाली की बातों का समर्थन करते हुए) चम्मच बेटी ! तुम्हारी खासियत सब हमारे कारण ही है- हम न हों तो क्या कोई खाली चम्मच को लेकर सिर पर नचाएगा ?
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