प्रस्तुत नाटक"शतरंज के खिलाड़ी" मेरी एक सहकर्मी गीता खन्ना ने कक्षा दस के छात्र-छात्राओं के साथ किया था । उन्हीं ने इस कहानी को नाटक के रूप में लिखा । मुझे बहुत ही अच्छा लगा ।सोचा कि मेरे पास यह नाटक है क्यों न उनका काम बाकी लोगों तक पहुँचाऊँ । आशा है कि आप को यह नाटक पसंद आएगा और आप सब के लिए उपयोगी होगा।
शतरंज के खिलाड़ी (प्रेमचन्द)
दृश्य एक
(पृष्ठभूमि में संगीत की धुन)
(मंच पर दो लोग बटेर लड़ाने की मुद्रा में, एक पतंग उड़ाने की मुद्रा में एक तरफ संगीत की महफिल।)
सूत्रधार १- सन १८५७ का समय। वाज़िद अली शाह का समय था। लखनऊ विलासिता के रंग में डूबा हुआ था। कहीं नाच गाने की मज़लिसें सजी हुई थीं, कहीं तीतर-बटेर लड़ रहे हैं, कहीं चौसर बिछी हुई है तो कहीं शतरंज का घोर संग्राम छिड़ा हुआ है। राजा से लेकर रंक तक सब इसी धुन में मस्त थे। शतरंज और ताश खेलने से बुद्धि तेज़ होती है, सोचने समझने की शक्ति का विकास होता है। ये दलीलें ज़ोरों के साथ पेश की जातीं।
सूत्रधार २- इसलिए अगर मिर्ज़ा सज्जाद अली और मीर रौशन अली अपना अधिकांश समय बुद्धि को तीव्र करने में ही बिताते तो किसी को क्या आपत्ति हो सकती थी?
मी.रौ- अमाँ मिर्जा साहब, अपना वज़ीर बचाइए।
मि- मीर साहब (चाल चलते हुए) हमारी फ़िक्र न कीजिए। (हँसते हुए) अपनी चाल की ओर ध्यान दीजिए।
(घर के अन्दर से आवाज़) अरे ये शतरंज न हो गई , जान का बवाल हो गई है। सुबह से शाम हो गई लेकिन इस मुई का सिलसिला ही खत्म होने को नहीं आता ।जाकर कह दे दस्तरख्वान बिछा हुआ है, खाना तैयार है , हाँ!)
नौकर-साहब वो, बेगम साहिबा आपका खाने पर इंतज़ार कर रही हैं।
मिर्ज़ा- चलो, आते हैं, दस्तरख्वान बिछाओ ।
(पृष्ठभूमि से अज़ान की आवाज़)
बेगम- (मंच के पीछे से) शाम की अज़ान हो गई, मगर क्या मज़ाल जो हिल जाएं अपनी जगह से।
उस्मान , ओ उस्मान, जा खाना वहीं पर दे आ ।
(मंच के दूसरे कोने में )
नौकर- (दूसरे आदमी से) अली! बड़ा मनहूस खेल है। घर को तबाह कर देता है ।
दूसरा आदमी- खुदा न करे किसी को इसकी चाट पड़े, आदमी दीन-दुनिया किसी के काम का नहीं रहता, न घर का न घाट का ।
मीर- अजी मिर्ज़ा, बड़ी देर हो गई, कुछ पान-वान का इंतज़ाम नहीं है क्या?
मिर्ज़ा- अरे उस्मान, ज़रा पान की बढ़िया गिलौरियाँ बनवा ला अन्दर से।
बेगम- क्या पान माँगे हैं?कह दो ले जाएँ आकर । खाने की फुरसत नहीं है, ले जाकर सिर पर पटक दो, खाएं चाहे, कुत्ते को खिलाएँ। इनका नाम मीर रौशन अली नहीं, मीर बिगाड़ू होना चाहिए । चले आते हैं यहाँ सुबहो, सुबहो ।
सूत्रधार १- इसी तरह क्या बेगम? क्या नौकर-चाकर? सभी परेशान इन शतरंज खिलाड़ियों से । पर क्या मज़ाल, जो इन दोनों के कानों पर कोई जूँ रेंग जाए। अभी एक दिन का वाकया है, ज़रा गौर फ़रमाएँ.....
बेगम- हाय अल्लाह! सिर में बड़ा दर्द हो रहा है, जा जाकर मिरजा साहब को बुला ला । किसी हकीम के यहाँ से दवा लाएं । दौड़ जल्दी कर ।
लौंडी- हुज़ूर, बेगम साहिबा ने बुलाया है। कह रही हैं सिर में बहुत दर्द है।
मिरज़ा- चल, अभी आते हैं।
बेगम-जाकर कह दे, अभी आएं नहीं तो वो खुद ही हकीम के यहाँ चली जाएंगी।
मिरजा- अरे बेगम! बड़ी दिलचस्प बाज़ी खेल रहा हूँ, बस दो ही किश्तों में मात हुई जाती है। बस यूँ आया तुम्हें ज़रा भी सब्र नहीं होता ।
मीर- अरे तो जाकर सुन ही आइए ना! औरतें ज़रा नाज़ुक मिजाज़ होती हैं।
मिरज़ा- जी हाँ, चला क्यूँ न जाऊँ! दो किश्तों मेम आपको मात होती है ।
मीर-जनाब, इस भरोसे न रहिएगा। वह चाल सोची है कि आपके मोहरे धरे रह जाएँ और मात हो जाए । पर जाइए, सुन आइए। क्यों खामख्वाह उनका दिल दुखाइगा।
मिरज़ा- इसी बात पर मात ही करके जाऊँगा।
मीर- मैं खेलूँगा ही नहीं। आप जाकर सुन आइए।
मिरजा-अरे यार, जाना पड़ेगा हकीम के यहाँ! सिर दर्द खाक, नहीं है सिर दर्द, मुझे परेशान करने का बहाना है।
मीर- मियाँ कुछ भी हो, उनकी खातिर तो करनी ही पड़ेगी।
मिर्जा-अच्छा, एक चाल और चल लूँ।
मीर- हरगिज़ नहीं, जब तक आप सुन आएंगे , मैं मुहरों पर हाथ न लगाऊँगा।
(मिर्जा साहब अन्दर जाते हैं)
बेगम- तुम्हें ये निगोड़ी इतनी प्यारी हैं। चाहे कोई मर ही जाए, तुम उठने का नाम ही नहीं लेते। शायद ही पूरे जहां में कोई तुम जैसा आदमी हो।
मिरजा- क्या कहूँ? मीर साहब मानते ही न थे । बड़ी मुश्किल से पीछा छुड़ा कर आया हूँ।
बेगम- क्या जैसे वह खुद निखट्टू हैं, वैसे ही सबको समझते हैं। उनके भी तो बाल-बच्चे हैं या सबका सफाया कर डाला?
मिरजा- बड़ा ही लीचड़ आदमी है, पूरा चिपकू है चिपकू। जब आ जाता है तब मज़बूर होकर मुझे भी उसके साथ खेलना पड़ता है।
बेगम-दुत्कार क्यों नहीं देते?
मिरजा-बराबर के आदमी हैं उम्र में , दर्जे में मुझसे । दो अंगुल ऊँचो मुखाहिज़ा करना ही पड़ता है, हम कैसे उनका लिहाज़ न करें?
बेगम- तो मैं ही दुत्कारे देती हूँ। नाराज़ हो जाएंगे तो हो जाएं , मेरी बला से। कौन किसी को रोटियाँ चला देता है। रानी रूठेंगी अपना सुहाग लेंगी। उस्मान, जा बाहर से शतरंज उठा ला। मीर साहब से कहना , मिर्जा अब न खेलेंगे। आप तशरीफ ले जाइए।
मिरजा- ना, ना कहीं ऐसा गज़ब न करना बेगम! ज़लील करना चाहती हो क्या? ठहर उस्मान , कहाँ जाता है?
बेगम- जाने क्यों नहीं देते? मेरा ही खून पिए, जो उसे रोके। अच्छा, उसे रोका। मुझे रोको तो जानूँ।
मिर्जा- खुदा के लिए, तुम्हें हज़रत हुसैन की कसम है। मेरी ही मैयत देखे जो उधर जाए।
(बेगम दीवानखाने के दरवाजे तक जाती हैं। भीतर कमरा खाली था। मीर ने एक -दो मोहरे इधर उधर कर दिए थे और अपनी सफाई जताने के लिए बाहर टहल रहे थे। बेगम ने अन्दर पहुँचकर बाज़ी उलट दी और मुहरें इधर-उधर फेंक दीं)
मिरज़ा- तुमने बड़ा गज़ब किया।
बेगम-अब मीर साहब इधर आएं तो खड़े-खड़े निकलवा दूँगी, मैं कहे देती
हूँ। इतनी लौ, लगाव खुदा से लगाते तो वली (महात्मा) हो जाते। जाते हो हकीम साहब के यहाँ.....
मिरजा- ज ज जाता हूँ। (जाते-जाते) लाल मिर्च, हरी मिर्च , मिर्च बड़ी तेज़, देखने में सीधी सादी मेरी बेगम, मिजाज़ बड़ा तेज़।
दृश्य दो
(मिरजा घर से निकले तो हकीम के यहाँ जाने की बजाए मीर के घर पहुँच गए)
मिरजा- क्या बताऊँ मियाँ?
मीर- मैंने मुहरें जब बाहर आती देखीं तभी ताड़ गया था भाभी जान के मिजाज़ आज दुरुस्त नहीं हैं। फौरन वहाँ से जान बचाकर भागा। बड़ी गुस्सेवर मालूम होती हैं भाभी जान! मगर आपने भी उन्हें यूँ सिर चढ़ा रखा है, यह ठीक नहीं। उन्हें इससे क्या मतलब? आप बाहर क्या करते हैं? कहाँ जाते हैं?
मिरजा- खैर , ये तो बताइए कि अब
कहाँ जमाव होगा?
मीर- इसका क्या गम है? इतना बड़ा घर आपके सामने पड़ा हुआ है? चलो, बस यहीं जम जाते हैं।
मिर्जा- लेकिन बेगम साहिबा को कैसे मनाऊँगा। यहाँ बैठूंगा तो मुझे ज़िन्दा न छोड़ेगी, कच्चा ही चबा जाएगी ।
मीर- अजी! बकने भी दीजिए, दो-चार रोज़ में आप ही ठीक हो जाएंगी। बस, आज से जरा अकड़ जाइए।
सूत्रधार २- इधर मीर साहब की बेगम किसी दूसरी वजह से मीर साहब का घर से दूर रहना पसन्द करती थी। यहाँ तक कि अगर उन्हें देर हो जाए तो याद दिलातीं थीं कि आज शतरंज खेलने नहीं जाना है? और अब......
बेगम- ये मुआ अच्छा शतरंज शुरु हो गया यहाँ पर! मैं तो दरवाज़े के बाहर झाँकने को तरस गई।
नौकर १- बेगम साहिबा! हुजूर की शतरंज तो हमारे जी का जंजाल हो गई। दिन भर दौड़ते-दौड़ते हमारे पैरों में छाले पड़ गए।
नौकर २- ये भी कोई खेल है, सुबह बैठे तो शाम ही कर दी ।
नौकर ३- खैर, हमें तो कोई शिकायत नहीं, हुजूर के गुलाम हैं, जो हुक्म होगा बजा लाएंगे। मगर ये खेल मनहूस है।
नौकर १- इसका खेलने वाला कभी पनपता नहीं, घर पर कोई न कोई आफत ज़रूर आती है। यहाँ तक कि मोहल्ले के मोहल्ले तबाह होते देखे गए हैं।
नौकर २- सारे मोहल्ले में यही चर्चा होती है। हुज़ूर का नमक खाते हैं। अपने आका की बुराई सुनकर रंज होता है। मगर क्या करें?
मोहल्ले वाले-(मंच पर बात करते हुए आते हैं) अब खैरियत नहीं। जब हमारे रईसों की ये हालत है तो मुल्क का खुदा ही हाफ़िज है।
सूत्रधार १- राज्य में हाहाकार मचा हुआ था। कोई फरियाद सुनने वाला न था। देहातों की सारी दौलत लखनऊ में खिंची चली आती थी और वह विलासिता में उड़ा दी जाती थी। अंग्रेज़ कम्पनी का कर्ज़ दिनोंदिन बढ़ता जा रहा था।सालाना टैक्स भी ठीक से वसूल न होता था। प्रेज़ीडेंट बार-बार चेतावनी देता पर किसी के कानों में जूँ न रेंगती थी।
(मंच के एक कोने पर दोनों शतरंज खेलते दिखाई देते हैं)
दृश्य ३
(बादशाही फौज़ का अफ़सर मीर साहब का नाम पूछता हुआ पहुँचता है)
अफ़सर- मीर साहब घर पर हैं?
मीर-(नौकरों से) कह दो घर में नहीं है। (मिर्जा की ओर देखते हुए) ज़रूर अंग्रेज़ी फौज़ से लड़ने का बुलावा आया है।
नौकर- मीर साहब घर पर नहीं हैं।
सवार- घर में नहीं हैं तो कहाँ हैं?
नौकर- यह मैं नहीं जानता। क्या काम है?
सवार- काम तुझे क्या बताऊँगा? नवाब साहब ने बुलाया है। अंग्रेज़ी फौज़ से लड़ने के लिए कुछ सिपाही मांगे गए हैं। ये जागीर्दार हैं, मोरचे पर जाना पड़ेगा तो आटे दाल का भाव मालूम होगा ।
नौकर- अच्छा, तो जाइए, कह दिया जाएगा।
मिरजा- बड़ी मुसीबत में फँस गए मियाँ। कहीं मुझे भी न बुलाया जाए। बड़ी आफत है, कहीं मोरचे पर जाना पड़ा तो बेमौत मरे।
मीर- बस। यही एक तरकीब है कि घर पर मिलो ही नहीं। गोमती नदी के किनारे पर जो पुराना खंडहर है, वहीं पर अपनी शतरंज जमाएंगे।
मिरजा- वल्लाह! आपको खूब सूझी मियाँ ।
दृश्य ४
सूत्रधार २-दूसरे ही दिन दोनों मित्र मुँह अंधेरे घर से निकल खड़े हुए । बगल में छोटी-सी दरी दबाए, मुँह में पान की गिलौरियाँ दबए। गोमती नदी के किनारे वाली वीरान मस्जिद में जिसे शायद नवाब आसफुद्दौला ने बनवाया था। फिर उन्हें दीन-दुनिया की फ़िक्र न रहती। किश्त, शह,मात इन दो तीन शब्दों के अलावा उनके मुँह से और कोई वाक्य नहीं निकलता।
सूत्रधार १- इधर देश की राजनीतिक दशा बिगड़ती जा रही थी। कम्पनी की
फौज़ें लखनऊ की तरफ बढ़ी चली आती थी । शहर में हलचल मची हुई थी। लोग बाल-बच्चों को लेकर देहातों की ओर भाग रहे थे। पर हमारे दोनों खिलाड़ियों को इसकी ज़रा भी फिक्र न थी।
(सैनिकों के मार्च पास्ट की आवाज़)
मीर-अंग्रेज़ी फौज़ आ रही है; खुदा खैर करे!
मिर्जा-आने दीजिए, किश्त बचाइए। यह किश्त।
मीर- जरा देखना चाहिए। यहीं आड़ में खड़े हो जाएं।
मिरजा-देख लीजिएगा, जल्दी क्या है? फिर किश्त।
मीर- तोपखाना भी है! कोई पाँच हज़ार आदमी होंगे। कैसे-कैसे जवान हैं? लाल-लाल बन्दरों के से मुँह। सूरत देखकर ख़ौफ मालूम होता है।
मिरजा- जनाब , बहाने न बनाइए। ये चकमे किसी और को दीजिएगा। यह किश्त।
मीर- आप भी अज़ीब आदमी हैं? यहाँ तो शहर पर आफत आई हुई है, और आपको किश्त की सूझी है। कुछ इसकी भी ख़बर है कि शहर घिर गया , तो घर कैसे चलेंगे?
मिर्जा- जब घर चलने का वक्त आएगा, तो देखा जाएगा-यह किश्त। बस! अब की शह में मात है।
सूत्रधार २- नवाब वाजिद अलीशाह पकड़ लिए गए थे। शहर में न कोई हलचल हुई न मारकाट। आज तक किसी स्वाधीन देश के राजा की पराजय इतनी शान्ति से, इस तरह खून बहाए बिना न हुई होगी। अवध के विशाल देश का नवाब बन्दी चला जाता था और लखनऊ ऐश की नींद में मस्त था।
( वाजिद अली शाह को बन्दी बनाकर ले जाया जा रहा है।
वाजिद अली-दरो दीवार पर हसरत की नज़र करते हैं
खुश रहो अहले वतन हम तो सफर करते हैं।
यह कहते हुए वे स्टेज से निकल जाते हैं।)
मिरजा- हुज़ूर, नवाब साहब को ज़ालिमों ने कैद कर लिया है।
मीर-होगा, ये लीजिए शह।
मिरजा- जनाब, ज़रा ठहरिए। इस वक्त इधर तबीयत नहीं लगती। बेचारे नवाब साहब खून के आँसू रो रहे होंगे।
मीर- ऐसा ही चाहें। यह ऐश वहाँ कहाँ नसीब होगी? यह किश्त।
मिरजा- किसी के दिन एक जैसे नहीं रहते। कितनी दर्दनाक हालत है!
मीर- हाँ,सो तो है ही- यह लो, फिर किश्त। बस अबकी किश्त मेम मात है, बच नहीं सकते।
मिरजा- खुदा की कसम, आप बड़े बेदर्द हैं। इतना बड़ा हादसा देखकर भी आपको दु:ख नहीं होता। हाय, गरीब वाजिद अली शाह।
मीर- पहले अपने बादशाह को तो बचाइए, फिर नवाब साहब का मातम कीजिएगा। यह किश्त और यह मात! लाना हाथ!
मिरजा- जनाब आप चला न बदला कीजिए। जो कुछ चलना हो , एक बार चल दीजिए; यह आप मोहरों पर हाथ क्यों रखे हैं?
मीर-अमाँ क्या बक रहे हो? खामख्वाह लाल-पीले हो रहे हो।
मिर्जा- एक-एक चाल आधे घण्टे में चलते हो ,इसकी इज़ाजत नहीं। फिर आपने चाल बदली। चुपके से मोहरा वहीं रख दीजिए।
मीर- मैंने चाल चली ही कब थी?
मिरजा- आप चाल चल चुके हैं। मुहरा वहीं रख दीजिए-उसी घर में।
मीर- क्यों रखूँ उस घर में? मैंने हाथ से मोहरा छोड़ा ही कब था?
मिरजा- आप मोहरा कयामत तक न छोड़ें, तो क्या चाल ही न होगी? फरज़ी पिटते देखा तो धांधली करने लगे।
मीर-धांधली तो आप करते हैं। हार-जीत तकदीर से होती है।
मिरजा- तो आप मोहरा उसी घर में रख दीजिए, जहाँ पहले रखा था।
मीर-वहाँ क्यूँ रखूँ? नहीं रखता।
मिरजा- क्यों न रखिएगा? आपको रखना ही होगा। किसी ने खानदान में शररंज खेली होती, तब तो इसके कायदे जानते। वो तो हमेशा घास छीलते रहे, आप क्या शतरंज खेलिएगा ।
मीर-क्या? घास आपके अब्बा जान छीलते होंगे। यहाँ तो पीढ़ियों से शतरंज खेलते चले आ रहे हैं।
मिरजा- अजी, जाइए भी, ग़ाजीउद्दीन हैदर के यहाँ बावर्ची का काम करते-करते उम्र गुज़र गई, आज रईस बनने चले हैं। रईस बनना दिल्लगी नहीं।
मीर-क्यों अपने बुज़ुर्गों के मुँह में कालिख लगाते हो-वे ही बावर्ची का काम करते होंगे। हम तो (सीना तानकर) बादशाह के दस्तरख्वान पर खाना खाते चले आए हैं।
मिरजा-अरे चल चरकटे, बहुत बढ़-चढ़ कर बातें मत कर।
मीर-ज़बान संभाल कर बात करिए, वरना बहुत बुरा होगा। मैं किसी की बातें सुनने का आदी नहीं हूँ। यहाँ किसी ने आँखें दिखाईं कि हमने उसकी आँखें निकालीं। है हौसला?
मिरजा- आप मेरा हौसला देखना चाहते हैं? तो फिर आइए! आज दो-दो हाथ हो जाएं।
मीर-तो यहाँ तुमसे दबने वाला कौन है?
(दोनों ने कमर से तलवारें निकाल लीं। तलवारें चमकीं, छपाछप की आवाज़ें आईं। दोनों जख्मी होकर गिरे, तड़प-तड़प कर वहीं जानें दे दीं।)
सूत्रधार १- अपने बादशाह के ले जिनकी आँखों से एक बूँद आँसू नहीं निकला, उन्हीं दोनों ने शतरंज के वज़ीर की रक्षा में प्राण दे दिए।
सूत्रधार २- अंधेरा हो चला था। बाजी बिछी हुई थी। शतरंज के बादशाह अपने-अपने सिंहासनों पर बैठे इन दोनों वीरों की मृत्यु पर रो रहे थे।
चारों तरफ सन्नाटा था। खंडहर की टूटी हुई मेहराबें, गिरी हुई दीवारें और धूल-धूसरित मीनारें लाशों को देखती और सिर धुनती थीं।
No comments:
Post a Comment