यह नाटक मैंने दो साल पहले कक्षा नौ के बच्चों के साथ किया था । आई. सी. एस. ई पाठ्यक्रम के अनुसार कक्षा नौ और दस के हिंदी छात्र-छात्राओं से मौखिक परियोजना के अंतर्गत नाटक या कविता वाचन या सम्भाषण आदि करने की अपेक्षा की जाती है । इसी कारण हर साल मैं अपने कक्षा नौ और दस के छात्र-छात्राओं को कोई न कोई नाटक कराती हूं । इस कारण ही अपनी छात्रा अनुका धीर की माता रचना धीर की मदद से मैंने यह नाटक कक्षा नौ के छात्र-छात्राओं के साथ किया । यह नाटक मौलिक रूप से अंग्रेजी भाषा में लिखा गया था जिसका अनुवाद रचना धीर ने किया था । इस नाटक का उपयोग ज्यादा से ज्यादा लोग कर सकें इसलिए मैनें यहाँ पर प्रकाशित किया है । आशा है कि मेरा यह प्रयास उपयोगी सिद्ध होगा ।
इतने घोड़े: शिवाजी के जीवन से एक लघु कथा
रचना धीर जी के विचार प्रस्तावना और सुझाव के तौर पर सब अध्यापक और अध्यापिकाओं के लिए - वेबसाइट
पञ्चकेपेडिया के अनुसार,
"१९६०
के दशक में बंगाली नवयुवकों
में सदाशिव कहानियां बहुत
लोकप्रिय थीं । "
जिस कहानी
के अनुवाद पर यह नाटक आधारित
है, हो
सकता है सच हो । ऐतिहासिक तौर
पर, कुछ
नाम तो सच हैं,
लेकिन
कुछ बनावटी भी ।
यह
नाटक दस बच्चों के संग यदि वे
अनेक रोल करें,
या फिर
कई ज्यादा छात्रों के साथ,
जो केवल
एक ही किरदार का रोल अदा करें,
किया जा
सकता है । ऐसी लिखने की शैली
का प्रयोग किया गया है जिससे
एक तो दर्शक तथा कलाकार दोनों
व्यस्त रहे और दूसरे दृश्य
बदलने की गति भी तेज़ हो । सरल
भाषा का प्रयोग इस लिए किया
गया है ताकि उसका अनुवाद कठिन
न हो, जिस
कारण छात्र मंच के हर विभाग
से परिचित हो सकें (जैसे
कि अनुवाद,
लिखित
कहानी से नाटक का बदलाव,
समय के
अनुसार पोशाक ,
सेट,
अभिनय,
आज कल के
वातावरण के अनुसार बात चीत
का ढंग,
इत्यादि
) ।
मंच
की सजावट बहुत ज्यादा हो सकती
है या फिर सीधी साधी ,
बजट के
अनुसार । यही बात संगीत तथा
पोशाक पर भी लागू होती है।
(दौड़ते
घोड़ों क़ी आवाज़ के लिए तबला,
राजमहल
के दृश्य के लिए शहनाई ,
मेहमानों
के स्वागत के लिए बिगुल इत्यादि
साधनों का प्रयोग किया जा सकता
है।)
नाटक
के लिए यह कहानी चुने जाने का
कारण यह था कि बच्चों को यह
समझना ज़रूरी है कि बात चाहे
पुराने ज़माने क़ी क्यूँ न हो,
दिल और
दिमाग तो तब भी और अब भी वैसे
ही काम करते थे और करते रहेंगे
। यह कहानी केवल इतिहास का ही
एक हिस्सा न बनी रहे ,
इस लिए
इस कहानी को जज्बातों से सजाने
क़ी कोशिश की गयी है ।
इस
नाटक में कई रिश्तों पर ख़ास
ध्यान दिया गया है,
मिसाल
के तौर पर-
माँ
और बेटा (जीजा
बाई और शिवाजी )
ममेरे
भाई बहिन (बलवंत
राव और जीजा बाई )
जवान,
बलवान,
बुद्धिमान,
सिपाही,
सेवक,
तथा सेनापति
जो मिलजुल कर काम करते हैं -
लक्ष्य
की प्राप्ति के लिए जब बच्चे
मिल जुलकर सद्भावना से काम
करें, तो
मुश्किल कठिनायों के सुझाव
उन्हें खुद ब खुद मिलेंगे ।
"लेकिन,
शिवाजी
चोर नहीं थे क्या?"
कुछ बच्चों
का यह सवाल पूछना स्वाभाविक
है ।
दूसरे
कह सकते हैं,
" उन्होंने
जो किया वह ठीक न था"
। यहाँ
बड़ों का उन्हें आपस में बात
चीत करके समझौते पर आने देना
ही सही माना जाएगा । यह ज़रूरी
नहीं कि प्रत्येक घटना सही
या गलत के माप तौल में हर समय
परखी जा सके । रोज़ मर्रा की
ज़िन्दगी में हमें बहुत चीज़ों
का ध्यान रखना पड़ता है और
हमें कोशिश करनी चाहिए कि हम
कठोर वचनों से दूर रहे,
अपनी
क्षमता और बुद्धि का सही उपयोग
करें ।
मुख्य
अदाकार :
शिवाजी
(राजा)
सदाशिव
(नौ
जवान सिपाही )
जीजाबाई
(शिवाजी
की माता)
कुछ
उनकी साथी-
सहेलियां
तानाजी
(शिवाजी
के मंत्री)
कुछ
अन्य मंत्री (कम
से कम १ लेकिन ५ तक मुमकिन)
जीजाबाई
के ममेरे भाई बलवंत राव
पुजारी
राम देव
शिवाजी
के सिपाही
बलवंत
राव के सिपाही और मंत्री भी
सूत्रधार
(एक
या अनेक)
पहला
दृश्य
मंच
के एक कोने पे,
जीजाबाई
अन्य औरतों के साथ बैठी हैं
(सिलाई
करती या खाना पकाती -
कोई भी
काम पसंद कर लीजिये)
{पीछे
चादरें दाल सकते हैं सुखाने
के लिए ।}
मंच
के दूसरे कोने पर शिवाजी मेज़
पर पंख के साथ पत्र लिख रहे
हैं (चेक
करना है )
सूत्रधार
: महाराष्ट्र
में पूना में आपका स्वागत है
। समय है १६४० और १६५० के लगभग
का दशक । उस समय,
यहाँ बहुत
किले थे । कुछ मुग़ल बादशाहों
के, कुछ
बिजपुरियों के और बहुत स्वाधीन
राजाओं के ।
छत्रपति
शिवाजी का बुलंद इरादा इन सब
किलों को जीतकर एक सल्तनत
बनाने का था। सब मराठी एकजुट
होकर फिरंगी राज से मुक्त हो
जाते । लेकिन यह कौन-सा
आसान काम था?
रास्ते
में बहुत उलझनें थीं जिसमें
से एक इस नाटक में छिपी है ।
चलिए देखते हैं कैसी?
जीजाबाई
( अपनी
एक साथी से कहती हैं):
"मैंने
पुजारी से पंचांग के बारे में
बात की। उनके अनुसार इस महीने
का सबसे शुभ दिन अगला गुरूवार
है। मैं तभी अपना उपवास शुरू
करना चाहूँगी । तुम तो जानती
ही हो कि मैं कितने सालों से
इस व्रत के बारे में सोच रही
हूँ लेकिन कुछ न कुछ बाधा आ ही
जाती है। लेकिन इस वर्ष मैंने
पक्का फैसला किया है ,
कोई भी
अड़चन मुझे रोक नहीं सकेगी ।"
पहली
सहेली:
“बहुत
अच्छी बात है। मैं भी इस शुभ
कार्य में तुम्हारा साथ देना
चाहूंगी। मैं भी प्रभु की
शुक्र गुज़ार हूँ कि उन्होंने
हमारे राज्य पर इतनी कृपा
बरसाई है और हमें शिकायत का
कोई मौका नहीं दिया।"
दूसरी
सहेली:
"मैंने
न जाने कितनी बार शिवाजी और
उनके सिपाहियों की टोली की
सुरक्षित वापसी के लिए कामना
की, जो
पूरी हुई। यदि मैं भी उपवास
रखूँ, तो
आने वाले दिनों में भी उनकी
सफलता और सुरक्षा बनी रहेगी।"
(शिवाजी
जब पत्र लिख रहे थे,
तब उन्होंने
उनकी बातें सुन ली । उठकर
उन्होनें अपनी माताजी से पूछा)
शिवाजी:
"माँ,
तुम अपने
व्रत के लिए किसे बुलाना
चाहोगी?"
जीजाबाई
(लम्बी-सी
सूरत बनाकर बोली):
"शायद
कुछ ब्राह्मणों को?
यदि हमारे
कोई रिश्तेदार पूना में होते,
तो उन्हें
भी बुला सकते थे।"
शिवाजी:
"अगर
आपकी यही इच्छा है,
तो क्या
उपवास से पहले मैं आपके ममेरे
भाई बलवंत राव को भोजन के लिए
आमंत्रित कर सकता हूँ?
आपको
उन्हें मिले कितने बरस हो गए?
जब मैं
नन्हा बच्चा था,
उन्होंने
कसम खिलाई थी कि मैं उनकी सेना
पर कभी आक्रमण नहीं करूंगा
और उनके किले को अपना बनाने
की कोई ख्वाहिश नहीं रखूंगा
। इस कारण,
हम उनसे
फिर कभी नहीं मिले।"
जीजाबाई:
"यह
फैसला मैं तुम पर छोडती हूँ
। वैसे तो ज़रूरी भी नहीं,
लेकिन
शायद दोनों शासनों की सेनाओं
और मंत्रियों की सद्भावना के
लिए यह लाभ दायक हो सकता है।"
शिवाजी:
"बहुत
अच्छे!
मैं अपने
मंत्रियों से तुरंत सलाह लेता
हूँ और अगर वे भी सहमत हैं तो
हम कल सुबह ही राज्य पुजारी
को आमंत्रण के साथ भेजेंगे।
"
(जीजाबाई
उठती है तो शिवाजी उनकी एक
साथी को कहते हैं)
शिवाजी:
"आप जाते
जाते तानाजी और सभी मंत्रियों
को मुझे मिलने को कहिए ।"
(तानाजी
सबसे पहले पधारने वाले मंत्री
थे)
तानाजी:
"आपने
सबको बुलाया,
क्या?"
शिवाजी:"हाँ,
सभी आ रहे
हैं?'
(इंतज़ार
करते, मंच
पर दर्शकों की ओर देखते आधे
चक्र के आकार में पंक्ति बनाते
हैं। पहले मंत्री से शिवाजी
पूछते हैं)
शिवाजी:
"बीमार
घोड़ों की क्या खबर है?"
(आँखे
मीचे)
मंत्री:
"खबर
अच्छी नहीं है,
जड़ी-बूटी
का कुछ भी असर नहीं हुआ लगता।”
(तानाजी
दूसरे मन्त्री से पूछते हैं)
तानाजी:
"हमारे
दुश्मनों की सेना इतनी खुशहाल
कैसे है?"
(मंत्री
शिवाजी की ओर देखते जवाब देता
है)
मंत्री:
"सरकार,
आपने गलत
सुना है । मेरे जासूसों का
कहना है,
मुग़लों
के घोड़े भी नहीं बचे इस बीमारी
से।"
(एक
और मंत्री तानाजी से कहते हैं)
मंत्री:
"ईरान
और दूसरे देशों के घोड़े बेचने
वाले इतना डर गए हैं कि हिंदुस्तान
आना ही बंद कर दिया ।”
एक
और मंत्री:
"मैंने
सुना है कि केवल बलवंत राव के
घोड़े तंदुरुस्त हैं?
और बड़ी
बात यह है,
कि उन्हें
यह मालूम भी है । इस लिए,
एक एक
घोड़े का दाम १० सुनहरी मुद्राएँ
मांग रहे हैं।"
एक
और मंत्री:
“क्या
उनसे बात करें?”
(शिवाजी
से तानाजी कहते हैं)
तानाजी:
"उनके
मामले में खून से सोना घना/कीमती
है । दलालों ने उन्हें बताया
भी कि घोड़े उनके भांजे शिवाजी
के लिए हैं ,
लेकिन
फिर भी दाम कम न किया ।आख़िरकर
वह एक पहुंचे हुए व्यापारी
हैं।"
मंत्री:"वे
अपने निजी मामलों और रिश्तों
को कारोबार के बीच नहीं आने
देते ।नहीं तो और कोई मामा
ख़ुशी-ख़ुशी
अपना किला अपने भांजे के राज्य
को मज़बूत करने के लिए भेंट न
कर देता?"
(शिवाजी
की तरफ देखते हुए मंत्री पूछते
हैं)
मंत्री:"मैंने
कुछ गलत कहा?”
शिवाजी
(मुस्कुराते
हुए) "जो
बीती सो बात गयी । वे आज दो हज़ार
घोड़ों और केवल ५०० सिपाहों
के साथ चंद्रागढ़ में विराजमान
हैं । मैंने उन्हें अपना वचन
दिया था -
वापिस
नहीं ले सकता । लेकिन,
बात हुई
थी खून-खराबा
न होने की। अगर हम उनके कुछ
घोड़ों को अपने राज्य का सदस्य
बना लें -
बिना किसी
सिपाही को चोट पहुंचाए -
तो क्या
उसे कसम तोड़ना माना जाएगा?"
(
सब आपस
में खुसर-पुसर
शुरू करते हैं,
बात न
समझते हुए)
शिवाजी
(सबको
कहते हैं ):"मेरी
माँ अगले गुरूवार से उपवास
रखना चाहती हैं ।क्यों न हम
बलवंत राव तथा उनके आदमियों
को उससे पहले दावत पर बुलाएं?
जब वे
अपने तंदुरुस्त घोड़ों पर
आयेंगे हम उन सबका -
आदमियों
का और घोड़ों का -
खूब अच्छे
से आदर सम्मान करेंगे । अगले
दिन जब उन्हें पता चलेगा कि
उनके घोड़े चोरी हो गए,
तो हम
क्या कर सकते हैं?"
सफाई
देने के लिए तानाजी बोले:
"सारी
दुनिया जानती है आजकल चोर
लुटेरे सब जगह मौजूद हैं।"
सब
ने (मिलके
एक साथ कहा):"क्या
बात है!
बहुत
अच्छे"
"छत्रपति
शिवाजी महाराज की जय"(सब
एक साथ बोले)
एक
मंत्री (दूसरे
से):"हमने
तो रिश्तेदारी का लिहाज़ माँगा
था सौदा करते समय,
तब तो वे
नहीं माने ।सो अब उनको सबक
सिखाने की बारी है।"
तानाजी:"शिवाजी
चाहते तो धावा बोल सकते थे
चान्दी गढ़ पर । लेकिन अपने
मामाजी की इज्ज़त करते हैं
।घोड़ों को कैद करने की तो कोई
बात ही नहीं हुई थी और सिपाहियों
को तो हम छू भी नहीं रहे हैं।"
शिवाजी:
"तो तय
हुआ? कल
सुबह-सवेरे
राज पुरोहित आमंत्रण लेकर
निकल पड़ेंगे ।"
तानाजी:
"क्या
सदाशिव को भी उनके साथ भेजें?"
शिवाजी:"हां,
क्यूँ
नहीं ? वे
बलवंत राव से पहली बार मिल भी
लेगा और ऊपर से बैल गाडी भी
चला देगा ।"
मंत्री:"लेकिन
घोड़े पर क्यों नहीं?"
तानाजी:"सबसे
पहली बात तो यह कि राज पुजारी
की उम्र को मद्दे नज़र रखते
हुए, बैल
गाडी ठीक रहेगी ताकि वे आराम
से जा सकें। दूसरी बात यह कि
हमारे इक्का-दुक्का
सेहतमंद घोड़ों को ऐसे समय
भेजना खतरे से खेलना होगा ।
आजकल सब मजबूर हैं और तंदुरुस्त
घोड़े के लिए कोई भी हमला करने
को तैयार हो सकता है ।”
सूत्रधार:
जहाँ
शिवाजी,
उनकी माता
जीजाबाई और मंत्री तानाजी
सच्चे शख्स थे । सदाशिव एक
बनावटी कलाकार माना जा सकता
है ।उसे जन्म दिया -बंगाली
उपन्यासकार सरदिंदु बंदोपाध्याय
ने । उसकी उम्र १६ बरस की थी
और वह शिवाजी का भक्त तथा एक
अच्छा सिपाही माना गया । १९५०
की शतक में उसपर लिखी कहानियों
का अंग्रेजी अनुवाद हमारे
पुस्तकालय में "अ
बैंड ऑफ़ सोल्जर्स"
नामक
पुस्तक में उपलब्ध है ।
(जब
सब मंत्री मंच से उतर रहें
हैं, तो
एक चिल्लाता है)
मंत्री:
"सदाशिव
- यहाँ
आओ"
मंत्री
(जोर
से):"चूंकि
तुम वीर हो और बुद्धिमान भी,
तुम्हें
एक बार फिर ज़रूरी काम सौंपा
जा रहा है,
समझ गए?
अपना मुंह
बंद रखना लेकिन आँखें खुली
और सब ध्यान से सुनना और देखना
। कर सकोगे?"
सदाशिव
(अपना
सर हिलाते हुए):
"दीवार
पर बैठी मक्खी माफिक बनकर
रहूँगा ।आप मुझपर पूरा विश्वास
कर सकते है।"
(और
वे दोनों अलग-अलग
दिशा में मंच से उतरते हैं।)
दूसरा
दृश्य
(किले
का बड़ा-सा
दरवाज़ा जिस पर सिपाही शास्त्रों
से पहरा दे रहे हैं। पुजारी
और सदाशिव दो सिपाहियों की
ओर बढ़ते है।)
पहला
सिपाही :
तुम कौन
हो?
दूसरा
सिपाही:
तुम्हें
क्या चाहिए?
तीसरा
सिपाही :"तुम
कहाँ से आये हो?
चौथा
सिपाही:
"तुम्हें
चाहिए क्या?"
पुजारी:
"नमस्कार!
मेरा नाम
राम देव है और मैं पूना का राज्य
पुजारी हूँ ।राज्य माता जीजाबाई
ने अपने भाई बलदेव राव के लिए
मेरे हाथ निमंत्रण भेजा है ।
पहला
सिपाही:
"यहीं
इंतज़ार करो । मुझे अपने
सेनापतिसे अनुमति लेनी होगी
। मैं चुटकी में लौटा ।"
दूसरा
सिपाही (पीठ
पर बोरी उठाए सदाशिव से पूछता
है): "और
तुम्हारी तारीफ?"
राज्य
पुजारी (जवाब
देते हैं):
"यह मेरा
सहायक है जो बैल गाडी पर मुझे
यहाँ लाया है । चूंकि हमें सब
मंत्रियों को और आप सब को
आमंत्रण देना है,
यह सब के
लिए सुपारी लाया है ।"
पहला
सिपाही:"सूबेदार
ने इन्हें अन्दर ले जाने को
कहा है ।"
(एक
सिपाही इनके साथ दुर्ग की
दूसरी तरफ जाना शुरू करता है
। बाकी सिपाही पहले की तरह
पहरा देना पुनः आरंभ करते हैं
।)
दृश्य
३
(यदि
खूब सारे बच्चे हों और बजट
अनुमति दे,
तो महल
का माहौल बड़े पैमाने पर बनाया
जा सकता है -
खूब सिपाही,
बड़े पंखे
हाथों से झुलाने वाले इत्यादि
।नहीं तो,
कुछ बच्चे
ही काफी हो सकते हैं|)
(बलवंत
राव गद्दे पे बैठे मंत्री को
इशारा करते हैं । राज पुजारी
के स्वागत के लिए । मंत्री हाथ
जोड़कर राजपुरोहित की तरफ बढ़ता
है, दोनों
एक साथ बलवंत राव की दिशा में
आते हैं ।)
बलवंत
राव (पुरोहित
को प्रणाम करते हैं और पूछते
हैं): "मेरी
बहिन जीजा और उसका बेटा शिवा
कैसे हैं?"
राज
पुजारी(हाथ
जोड़े जवाब देते हैं):“प्रभु
की कृपा से सब कुशल मंगल है
।(ओल
इज़ वेल)?
आपको अगले
हफ्ते दावत के लिए आमंत्रित
करने आया हूँ ।आपकी बहिन जीजा
अगली पूर्णिमा से व्रत रख रही
हैं और शिवाजी चाहते थे कि
उनके रिश्तेदार भी उनके साथ
हर्ष मना सकें । हम आपके
शुक्रगुज़ार होंगे यदि आप अपने
सभी मंत्रियों तथा सेनापतियों
के साथ अगले बुधवार पूना पधार
सकें ।(सबकी
ओर इशारा करते हुए)
कृपया
ये पांच सुपारियाँ शुभ निमंत्रण
समझ स्वीकार करें।”(सदाशिव
उनके हाथ में ५ सुपारी देता
है जिसे लेकर राज पुजारी बलवंत
राव की दिशा में बढ़ते हैं)।
(बलवंत
राव अपनी पगड़ी गद्दे से लेकर
अपने सर पर रखते हैं और खुली
हथेली राज पुरोहित के सामने
रख सुपारी स्वीकार करते हैं
।वे राजपुरोहित को बैठने का
इशारा करते हैं पर सदाशिव खड़ा
रहता है (क्यूंकि
वह उम्र में और ओहदे में छोटा
है)।
बलवंतराव
(अविश्वसनीय
सूरत से पूछता है):
"दावत
में क्या खिलाएंगे?"
सदाशिव
(हाथ
के इशारों के साथ कहता है):
"उम्दा
चावल,
स्वादिष्ट
सब्जियां,
पौष्टिक
रागी रोटी,
गोल-गोल
लड्डू,
बादाम
दूध, बलखाती
जलेबियाँ...."
(वह
तो बोलता जाता यदि बलवंत राव
उसे रोकते नहीं ।)
बलवन्तराय:
“तुम तो
देख ही रहे हो कि मेरे राज्य
में ५०० से भी अधिक सैनिक और
उतने ही मंत्री भी हैं। क्या
तुम्हारा शिवाजी महाराज उन
सब को इतना बढ़िया खाना खिला
पाएगा?
"
राज्पुजारी
राम देव (पूरे
गर्व से)
:“क्यों
नहीं? आप
ने तो उनके बारे में सुना है
"प्राण
जाएँ पर वचन न जाईं ।”
(फिर
बारी-बारी
वे मंत्रियों के हाथ में सुपारी
रखते गए और एक पंक्ति में मंत्री
मंच से उतरते गए |संतुष्ट
बलवंत राव (मुख्य
मंत्री को इशारा करते हैं राज
पुजारी को ले जाने के लिए और
कहते हैं):
"जीजा
को कहना मैं ज़रूर आऊंगा । जब
शिवा छोटा था,
मैंने
उससे प्रतिज्ञा दिलवाई थी
मेरे किले में कभी पाँव ना
धरने की । अभी तक तो उसने वादा
निभाया है । माँ ने बेटे की
अच्छी परवरिश की है ।"
राज्यपुजारी
रामदेव (सर
झुका कर प्रणाम करते हैं):
“जी ज़रूर
।शिवाजी अपना दिया हुआ वचन
कभी नहीं तोड़ेंगे ।"
(एक
मंत्री राजपुरोहित और सदाशिव
को हाथ के इशारे से मंच से उतरने
का इशारा करते हैं|
फिर वे
घर -घर
जाकर आमंत्रण देते है ।उनके
साथ एक सिपाही जोर से बार-बार
ऐलान करता है।)
सिपाही:
“दावत
में शामिल हों!
सब दावत
में शामिल हों!”
एक
सिपाही (सुपारी
को हथेली में स्वीकार करते
हुए कहता है):
"मैं
अगले बुधवार तक कैसे इंतज़ार
करूँ?
आजकल तो
केवल ज्वार की रोटी और धनिये
की चटनी से पेट भरता रहा हूँ
।”
दूसरा
सिपाही:
"तुम्हारा
राजा तो बहुत दयालु है । अपने
मामू को बुलाता लेकिन हमें
भी खिला रहा है?
काश,
उसका मामू
भी उसके जैसे बड़े दिलवाला
होता ।”
दृश्य
४
(पंडित
कतार में बैठे खा रहे हैं,
कुछ लोग
खाना परोस रहे हैं । शिवाजी
और उनके मंत्री मेहमानों का
इत्र छिडकाते हुए स्वागत कर
रहे हैं । लोगों की आपस में
बातें ऐसे सुनाई दे रही हैं
जैसे भिनभिनाती मक्खियाँ ।)
एक
सिपाही (एक
मंत्री से कहता है):
"जेस्साजी
- किले
से निगरानी रखने के लिए कितने
सिपाहियों की ज़रुरत है?”
मंत्री
जेस्साजी:“हज़ार
लोगों को बुलाया है -
उच्चत्तम
कोटि की सुरक्षा ।”
सिपाही:
"हमारे
जासूसों ने कुछ ख़ास न देखा,
न सुना
।"
मंत्री
जेस्साजी:
"बहुत
खूब | उनसे
कहिये,
फिर भी
चौकन्ने रहें।"
(मंच
के दूसरी ओर,
सदाशिव
लम्बी सी दूरबीन से देखते हुए,
चेक कर
लीजिये):
सदाशिव:
“घाटों
की दिशा से बहुत धूल उठ रही है
- ज़रूर
बलवंत राव की ही सेना होगी ।”
एक
मंत्री:
"मुझे
देखने दो -
कितने
घुड़सवार हैं?"
सदाशिव:
"मुझे
तो एक-भी
घोडा दिखाई नहीं दे रहा?
यह टोली
तो बहुत धीमी गति से आ रही है!
अरे,
कहीं ये
बैल गाड़ियों पर तो नहीं आ रहे?
उनके घोड़े
कहाँ गायब हो गए?"
(मंच
के दूसरी ओर,एक
सिपाही जाकर शिवाजी को खबर
सुनाता है । खामोश,
केवल
इशारे से)
शिवाजी(दु:खी
अंदाज़ में):
"वे समझ
गए होंगे । हमने उन्हें क्यों
बुलाया?"
(शिवाजी
और कुछ मंत्री हाथ जोड़ मेहमानों
का स्वागत करते गए,
जैसे कि
कुछ न हुआ हो )शिवाजी
(बलवंत
राव के आगे,
सर झुकाकर)
:"आप आये
- हम
आभारी हैं.
"
बलवंत
राव: "आखिर
मेरी बहन ने बुलाया था,
मै भला
कैसे न आता?
कहाँ है
जीजा?"
शिवाजी(सिपाही
को इशारा करते हैं । मंत्रियों
के हाथ धुलाये जाते हैं और
खाने की पंक्ति में बैठने का
इशारा किया जाता है)
शिवाजी:
"सारे
मंत्रियों और सिपाहियों को
कितनी बैलगाड़ियों में लाए ?
"
बलवंत
राव: "जितनी
गाड़ियों में सब आराम से बैठ
सकें, सौ
सिपाही तो किले के पहरे के लिए
रुकने ही थे ।आजकल आपने डकैतों
के बारे में नहीं सुना?
इस लिए
तो हम घोड़ों पर सवार नहीं हुए
।"
(भोले
बनकर )शिवाजी:
"सौ
सिपाही क्यों छोड़े पीछे?"
बलवंत
राव:"तुम
ने वचन दिया है -
तुम तो
हमला करोगे नहीं । लेकिन औरों
का क्या भरोसा?
चारों
दिशाओं में दुश्मन बैठे हैं
।"
(स्वागत
में दोनों गले मिलते हैं,
एक दर्शकों
को जीत का अंगूठा दिखाता है
और दूसरा आँख मारता है ।)
सूत्रधार:
दोनों
जानते थे कि उनकी टक्कर अपने
मुकाबले के खिलाड़ी से हुई है
। लेकिन क्या शिवाजी उन घोड़ों
को अपने दिमाग से निकाल पाएंगे?
(अब
जीजाबाई भी आ जाती हैं और सब
साथ में बैठ कर खाना शुरू करते
हैं।)
सदाशिव
(शिवाजी
के पास आकर कहता है):"आपके
लिए सन्देश आया है । "
(शिवाजी
माफ़ी मांगकर उठते हैं और मंच
के कोने में खड़े मंत्रियों
के पास जाते हैं । शिवाजी और
उनके मंत्री गोलाकार में
कन्धों पर हाथ रख खुसर-फुसर
करते हैं ।)
शिवाजी:
"बहुत
खूब"
(और एक
मन्त्री को):
"अपने
५० स्वस्थ घोड़े और सबसे तेज़
घुड़सवार सदाशिव को दीजिये
।“
(खाने
वाले मंच से उतर चुके हैं।उनकी
जगह बोरियों में खाना डाला
जा रहा है और बोरियों को घोड़ों
पर लादा जा रहा है..)
मंत्री:
"इतना
भारी भोजन खाने के बाद इन सब
को गहरी नींद तो आनी ही चाहिए
|"
दूसरा
मंत्री:
"आशा
है कि जीजा बाई अच्छी मेहमाननवाजी
फरमाएंगी और उन्हें रात यहाँ
काटकर कल सुबह जल्दी लौटने
का मशवरा देंगी।
दृश्य
५
(मंच
के एक कोने में फिर वही द्वार
और वही सिपाही । दूसरे कोने
में सदाशिव,
सिपाही
और
घोड़े
।)
सदाशिव
(इशारा
करते हुए):
“खाने
की बोरियों को इन दस घोड़ों पर
रखते है । आप यहीं इंतज़ार
कीजिये -लेकिन
आराम नहीं!
जब आपको
उस पहाड़ी पर एक जलती हुई मशाल
नज़र आये,
तो आप
भागते हुए द्वार तक आ जाएँ ।
इन घोड़ों को यहीं छोड़ेंगे और
उनके घोड़ों पर सवार घर लौटेंगे
।समझे?"
(सदाशिव
कुछ सिपाहियों और घोड़ों के
साथ द्वार की और बढ़ते हैं ।)
पहला
सिपाही :
तुम कौन
हो?
दूसरा
सिपाही:
तुम्हें
क्या चाहिए?
तीसरा
सिपाही :"तुम
कहाँ से आये हो?
चौथा
सिपाही:"तुम्हें
चाहिए क्या?"
सदाशिव:
"हम पूने
से आये हैं। तुम्हारे लिए
खाना लेकर । जब हमें पता चला
कि तुम काम छोड़कर हमारे साथ
बैठकर खाना नहीं खा सकते,
तो हमें
बहुत बुरा लगा ।जल्दी से,
फाटक खोलो
ताकि हम तुम्हें खिला सकें
।"
तीसरा
सिपाही:
"लेकिन
हमें द्वार खोलने की इजाज़त
नहीं है।"
सदाशिव:
"परवाह
नहीं । तुम अपना काम करो,
हम अपना
करते हैं । पहरा देते-देते
तुम एक
रस्सी
नीचे फ़ेंक देना,
हम उससे
तुम्हारा खाना ऊपर पहुंचा
देंगे ।"
सिपाही
१:"मैं
भी तो यही कह रहा था!
यह लो
रस्सी"
(और,
फेंकने
का इशारा करता है।
सदाशिव
और साथी खाने की पोटलियों या
टोकरियों को बाँध कर ऊपर
पहुंचाते हैं ।वे
वापिस लौटने का नाटक करते है,
घोड़ों
को पेड़ से बाँध कर फिर द्वार
को जाते हैं । खाने के बाद,
सिपाहियों
को भी नींद आती है -
उबासियां
भरते,
आँखे
मलते हुए )
सिपाही
१: "क्या
मजेदार खाना था!"
सिपाही
२: "मैंने
तो बचपन में अपनी अज्जी के घर
ऐसा खाना खाया था,
अब नींद
भी उतनी ही मीठी आ रही है ।"
सिपाही
3:"खैर,
हमपर
निगरानी रखने वाला तो कोई है
नहीं, आज
रात यहाँ । चलो,
थोड़ी देर
सुस्ताने में कोई हर्ज नहीं
।"
(सदाशिव
साथियों को इशारा करता है और
वे धक्का देकर द्वार खोल डालते
हैं ।सोते हुए सिपाहियों के
हाथ पाँव बाँध देते हैं।)
सदाशिव
(एक
ओर इशारा करते हुए):
"अस्तबल
उस तरफ है -
मैंने
घोड़ों को उस आम के पेड़ के नीचे
देखा था जब मैं राज पुजारी के
साथ पिछली बार आया था ।"
सिपाही
(झोपडी
में नज़र डाल,
दरवाज़ा
बंद कर,
चिटखनी
लगाते हुए कहता है):
"खाली
घरों को बंद करते जाएँ?
वैसे तो
सब दावत खाने पूना गए हैं,
अगर कोई
पीछे रह भी गया हो तो निकल नहीं
पायेगा ।"
(सभी
घोड़ों को लिए द्वार की ओर चल
पड़े । एक सिपाही नींद से उठ
रहा है तो उसको तलवार दिखाई
जाती है और होठों पर ऊँगली शोर
न मचाने के लिए ।)
सिपाही:"वापसी
के लिए दूसरा रास्ता लें?"
सदाशिव:
"काश
मैं यहीं रह सकता -
किले
पहुँचते ही बलवंत राव का हाल
देखने के लिए ।"
सिपाही:
“वे अब
चलने की तैयारी कर रहे होंगे?”
सिपाही
: "यही
तो है ज़िन्दगी!”
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