Monday, 25 May 2015
Sunday, 24 May 2015
प्रेम का अज़ब रिश्ता / Prem Kaa Azab Rishta Adapted or inspired by Crime Petrol Serial
प्रेम का अज़ब रिश्ता
यह नाटक मैंने सोनी चैनल पर आने वाले कार्यक्रम "क्राइम पैट्रोल " के किसी एक एपिसोड से प्रेरित होकर लिखा था । यह एक अच्छी , भावनात्मक और सच्ची कहानी है जो धर्म के भेद भाव से परे है और सिर्फ प्यार और स्नेह पर आधारित है । आज के ज़माने में इस तरह के सच्चे उदाहरण बच्चों को प्रत्यक्ष रूप से शिक्षा देने में सक्षम हैं । यह नाटक कक्षा आठ के साथ किया गया और सभी छात्र और छात्राओं ने अपने भावनात्मक अभिनय से सभी दर्शकों को रुला दिया । मैं "क्राइम पैट्रोल " की आभारी हूँ कि उनके कारण ही मैं अपने छात्र -छात्राओं में प्रेम का दीप जलाने में सक्षम हुई । मैं अपनी सहेली नंदिनी कले की आभारी हूँ क्योंकि उसी की प्रेरणा से मैंने इस स्क्रिप्ट को लिखा और फिर हम दोनों ने इस नाटक को दो भाषाओं हिंदी और अंग्रेजी में किया । यह नाटक अभी तक सभी के ज़हन में बसा है ।
पात्र- किशन, श्रुति, अनुपमा,इमरान, रामू , डॉक्टर, नर्स, किरण की पुत्री, पुलिस इंस्पेक्टर, पुलिस सिपाही , किरण, नरेंद्र, ग्राहक, मौलाना, मुस्लिम ग्राहक , प्रधानाचार्य, सूत्रधार, जावेद, जरीना, फातिमा, कान्ति , जज, वसीम खान , वसीम के अब्बू और अम्मी ।
बिस्तर- रज़ाई, सौड़, चादर, तकिया, गद्दा की आदमी से शिकायतें/ Complaints from bed, quilt, sheet, pillow and mattress
यह नाटिका मैंने किसी पाठ्य पुस्तक से ली है जिसका नाम मेरे पास नहीं है पर पढ़कर मुझे यह बहुत पसंद आयी और मैं आप सब के साथ बांट रही हूँ । इसे मैं मिश्रित माध्यमिक समूह अथवा कक्षा पांच , छह और सात के साथ अवश्य करूंगी । आशा है कि पाठक वर्ग को पसंद आएगी ।
तकिया- (एकदम लाल-पीला हो, उछला) गद्दे दादा! तुम्हारा तो मनुष्यों का साथ सदियों, बरसों, महीनों, दिनों का है-मुझे देखो न। मैं तो इंसान जब पैदा होता है, शायद तब से ही मेरे सहारे के बिना किसी को नींद ही नहीं आती। जहाँ तक कि नवजात शिशु को भी मेरे बिना चैन नहीं पड़ता । उसे मेरे बिना नींद नहीं आती। क्या औरत, क्या मर्द, क्या बच्चा, क्या बूढ़ा मेरे सहारे बग़ैर न तो उन्हें चैन पड़ता है, न नींद ही उन्हें आती है । थका-मांदा मनुष्य मेरे न होने पर किसी पत्थर का ठीया बनाकर आराम करता है। कोई भी टेक न होने पर हाथ का सहारा लेकर उसे तकिये का रूप दे देता है-कहने का मतलब है कि तकिये के सहारे के बिना न कोई बीमार, न कोई रोगी यानि कि कोई भी चैन-आराम नहीं ले सकता है । हाँ, तुम लोग अपनी-अपनी शेख़ी बघार कर छाती फुलाते हो, मूँछें मरोड़ते हो लेकिन आप सबमें से किसी ने भी मेरा नाम तक नहीं लिया । अगर मनुष्य के पास गद्दा न हो, रज़ाई-सौड़, चादर आदि कुछ भी न हो, तो भी इंसान नंगी ज़मीन पर सो सकता है । मगर उसके पास यदि तकिया न हो, तो वह सो ही नहीं सकता । रही बात इस मनुष्य, इंसान की-सबसे ज़्यादा यह स्वार्थ मेरे साथ बरतता है। रात को वह सिर से लगाता है, बग़ल में लगाता है, करवट में लेता है, दोनों पैरों में दबाता है-लेकिन अपने इतने आराम और विश्राम के साथ मुझे गंदगी में भी सान देता है। मुझमें हर गंदगी लगा देता है। ख़ैर, उसकी मर्जी।
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बिस्तर- रज़ाई, सौड़, चादर, तकिया, गद्दा की आदमी से शिकायतें
पात्र- रज़ाई, गद्दा, सौड़, चादर, तकिया ।
(रज़ाई, गद्दा, सौड़, चादर यानि कि बैडशीट, तकिए आदि कमरे के एक कोने में दीवार के साथ लगे हुए विराजमान हैं । मनुष्य की कुछ ज़्यादतियों के कारण उनके मन में शिकायतें जमा हो गईं-अब वे स्वयं अपनी परेशानी और मुसीबतों से तंग आकर अपनी शिकायतें स्वयं अपने से करके मन को संतुष्ट कर रहे हैं ।)
रज़ाई- (अपने को ज़रा सुस्थिर करती हुई) गद्दे काका! मैं आपसे ही अपने मन की बात कह सकती हूँ क्योंकि मेरा संबंध आपसे अधिक है और मनुष्य भी हम दोनों का प्रयोग बेतरकीबी से करता है । मैं समझती हूँ कि मैं अपने मन का गुबार आपके सामने रखूँ तो अच्छा है क्योंकि- क़हरे दरवेश बरजाते दरवेश यानि कि फ़क़ीर का गुस्सा फ़क़ीर पर ।
गद्दा- सुनाओ, बहन रज़ाई ! अपने मन की बात । वैसे यह मनुष्य है तो बेदर्दी और खुदगर्ज़ी। अपने काम को सबसे ज़्यादा विशेषता देता है । चाहे कोई भी मौसम हो अपने काम से काम । बिना पांव पोंछे-साफ किए मुझ पर चढ़ जाता है । मस्ती में आकर मुझ पर सवारी करता है-अकेला ही नहीं, अपनी बीवी -बच्चों के साथ मुझ पर सवारी करता है । मुझ पर खूब गंदगी फैलाता है । मुझे कहना नहीं चाहिए परन्तु कहूँगा ज़रूर कि इसके छोटे-छोटे बच्चे सू-सू आदि गंदगी मुझ पर बेफिक्री से करते हईं । इसकी घरवाली चाहे तो मेरी सफाई करे , नहीं तो मन न हो , अपनी मस्ती में हो तो सफाई न करे । मालिक की यह दशा है कि नाक-मुँह, बलगम आदि भी मुझसे साफ कर लेता है ।
रज़ाई (गद्दे की बात सुनकर तुनकी तबियत से रज़ाई बोली) काका! इससे बुरी हालत इस आदमी के घरवाले (बीवी-बच्चे) मेरी करते हैं। मारते हैं पाँव, तो कभी मारते हैं लात और मेरी कमर तोड़ देते हैं-तेल लगाए अपने सिरों पर मेरे साथ खिलवाड़ करते हैं । कभी मेरे से अपना सिर ढकते हैं तो कभी उघाड़ते हैं- उनका यही शौक है ।
गद्दा- (रज़ाई की बात सुनकर भिन्नाकर बोला) अरे, कोई-कोई स्त्री तो मुझे धोकर धूप में भी नहीं सुखाती । मुझे गंदे का गंदा ही पड़ा रहने देती है। मुझे इतनी बदबू आती है कि मैं सहन नहीं कर सकता । तुम तो बेटी फिर भी ऊपर ओढ़ी जाती हो......मैं तो नीचे ही पड़ा रहता हूँ। मुझको बहुत बुरी तरह इस्तेमाल किया जाता है । मेरा तन-मन और शरीर क्षीण हो जाता है, हो जाए कमज़ोर मेरा शरीर पर उस स्वार्थी मनुष्य को क्या? वह फिर भी मेरा बुरी तरह प्रयोग करता रहता है। बेशर्म आदमी, बड़ा बेग़ैरत है।
रज़ाई- काका! मेरा प्रयोग इस आदमी का परिवार इस बेरहमी से करता है कि बस पूछो मत । जब कभी बारिश होती है, तो मुझे ऊपर डाल कर सोता रहता है-मैं भीग कर इतनी सीली-गीली हो जाती हूँ कि मुझे धूप में डालने की बजाए एक कोने में या आंगन में पटक देता है। मैं कई दिन-हफ्ते वहीं सड़ती रहती हूँ- मुझ से बहुत बदबू आती है । उसको कभी सर्दी सताती है तब जाकर कहीं मेरी सुध लेता है वरना मेरी कोई खैर-खबर नहीं लेता है। बेखबरी और लापरवाही ही उसकी बुरी आदत है । यह सब आदमी से ज़्यादा औरतें करती हैं। वह इस काम को बच्चों के हाथों सौंप देती हैं या नौकर को कह देती है । नौकरों की आदत और स्वभाव तो आप जानते ही हैं। नौकर-हे भगवान! कह कर हफ्तों तक टाल देता है। अब मेरी परवाह करे, उनका ठेंगा! वे तो अपनी मस्ती में रहते हैं ।
गद्दा- बेटी, इस आदमी ने हमारी इतनी बेकद्री की है कि खुदा की पनाह अथवा ईश्वर ही हमारी लाज रखे । हम जाएं तो जाएं कहाँ? हमें वे कैसे ही रखें, उनके पल्ले जो हम पड़ गए हैं जैसे वे रखें , हम रहते हैं- मगर इस मनुष्य को यह समझ लेना चाहिए, इसमें उसी की ही हानि है-छुरी खरबूज़े पर पड़े, तब भी खरबूज़े की हानि और अगर खरबूज़ा छुरी पर पड़े तब भी खरबूज़े की हानि । हाँ, इतना ज़रूर है कि जब हमारा तन-बदन टुकड़े-टुकड़े हो जाता है या हमारी खरपच्चियाँ उड़ जाती हैं तो हमारा सत्यानाश हो जाता है। बाकी हमें क्या! हमारी बुरी हालत होगी तो इस आदमी को ही तरह-तरह की बीमारियाँ होंगी । उसको ही तकलीफ होगी । उसके बीवी-बच्चे रोगी होंगे। उन सबका इलाज कराने में उसके ही पैसे लगेंगे क्योंकि हमारा तन, मन, शरीर बनाने में उसी को काफी खर्च करना होगा ।
रज़ाई- (समर्थन करते हुए) हाँ, काका! मैं आपसे सहमत हूँ।
सौड़- रज़ाई भतीजी! तुम सब अपने-अपने दुखड़े सुना-सुना कर अपना मन हल्का कर रहे हो परन्तु कभी अपनी ताई की व्यथा पर ध्यान दिया है जो सैकड़ों बरसों से पिसती चली आ रही है! रज़ाई बिचारी तो सिर्फ मुग़लों के ज़माने की देन है। शहज़ादे सलीम ने अपने ख़ास दर्जी को यह सलाह दी थी कि सौड़ पुराना ओढ़न है और भारी भी है । हम हैं शहज़ादे हमारे लिए कोई सोफियाना ओढ़न तैयार करके दो । तब मियाँ तिनकू ने बड़े अक्लोहुनर के साथ भतीजी रज़ाई की खोज की थी । खैर, मेरे दुखड़े पर ध्यान दो कि मैंने न जाने कितनी सदियाँ किस जतन से काटीं । बड़े-बड़े राजा-महाराजाओं ने मेरी वह कद्र की कि अल्लाह उनके रुतबे को सलामत रखे और उनके नाम के साथ उनका विकार कायम रखे । मुझे याद है वह ज़माना जब महाराजा पृथ्वीराज और महारानी संयोगिता ने हमारा बड़े अदब से प्रयोग किया । ऐसे ही महाराणा प्रताप ने मेरी कद्र करते-करते ही जंगल में घास खाई । आज भी मैं वह सौड़ हूँ कि क्या हिन्दू, क्या मुसलमान, क्या सिक्ख, क्या ईसाई, सभी मेरा प्रयोग कर सर्दियाँ काटते हैं और मुझे दुआ देते हैं - हाँ, लेकिन कुछ असभ्य और कठोर स्वभाव वाले लोग बुरी तरह मेरी मिट्टी पलीद करते हैं, मुझे गंदा करते हैं । यह बदतमीज़ी है। कहाँ हमारा वह ज़माना थ, कि हमें बड़ी इज़्ज़त की निगाह से देखा जाता था । ये सब इस कम्बख्त ज़माने की तराश-खुराश है। (बीच में ही चादर का प्रवेश)
चादर- चलो बड़ी बी, आपने तो सुनहरी ज़माना देखा है और बड़ी इज़्ज़त भी हासिल की है-आपको शायद याद होगा कि आपके साथ-साथ मेरी भी कितनी इज़्ज़त थी। गद्दे के ऊपर विराजमान की जाती थी। मुझे इतनी हिफ़ाजत से रखा जाता था कि गद्दे पर कितनी गर्द और धूल पड़ी हो, मगर मज़ाल है कि मुझ पर थोड़ा-सा भी गर्द का रेशा आ पाए । शहज़ादे और शहज़ादियाँ हम चादरों पर लेट कर फूले नहीं समाते थे । उनके ज़माने में मैं शायद ही मैली होती थी। नौकरानियों और दासियों को यह हुक्म होता था कि मैं ज़रा भी मैली न हो सकूँ। धोबी-धोबिन अगर मुझे पूरी तरह से साफ नहीं करते थे तो उन्हें सख्त से सख्त सजाएं दी जाती थीं । मगर खुदा की पनाह कि आज का इंसान तो इतना ज़लील हो गया है कि गंदे हाथ-पांव मुझसे ही साफ करता है। कुछ बदतमीज़ शख्स तो, नाक तक मुझसे पोंछने में हिचकते नहीं । अल्लाह उन्हें ग़ारत करे । हमारी इतनी बड़ी इज़्ज़त का कबाड़ा कर दिया । (कोने से गद्दा बोला)
गद्दा- देखो, भाई-बहिनों! मैंने बड़े ध्यान से सब के दु:ख और शिकायतें सुनी हैं लेकिन मैं सबको यह बता देना चाहता हूँ कि सदियों पहले से मुझ पर जितने जुल्म-सितम और अत्याचार किए जा रहे हैं इस इंसान के जरिए, वे सब बयान से बाहर हैं । इस इंसान की बुरी आदतों का मैं तहेदिल से जिक्र करूँ तो शायद तुम सब ही उससे तहेदिल से नफरत करोगे। इसने मेरी बेकद्री करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । गर्मी के मौसम में दुनिया भर की गंदगी और बदबू का ढेर मुझमें समा दिया । सर्दियों की बात मत पूछो । रही बात बरसात की, मच्छर-मक्खी, खटमल और न जाने क्या-क्या मुझमें प्रवेश करते रहते थे और मैं अपनी नर्म-नर्म रुई से एक कुसूरवार की तरह ख़ामोश पड़ा सिसकता रहता था । सार घर में बीसों औरतें-मर्द, बच्चे बसते थे, लेकिन क़सम से उन्हें अल्लाह पाक की, कोई उफ़ तक नहीं करता था, मेरे दु:ख और ग़म पर ।
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