यह नाटिका मैंने किसी पाठ्य पुस्तक से ली है जिसका नाम मेरे पास नहीं है पर पढ़कर मुझे यह बहुत पसंद आयी और मैंने इसे इस साल यानि कि अगस्त २०१४ में मिडिल स्कूल के मिश्रित समूह के साथ यह नाटिका की जिसमें कक्षा पाँच, छ: और सात के छात्र और छात्राएं थे । इस नाटिका के नाटककार का नाम पाठ्य पुस्तक में नहीं दिया गया था ।बच्चों ने इस नाटिका को करते हुए बड़ा मज़ा किया । उन्होंने जिन प्राकृतिक साधनों का अभिनय किया उसी के अनुसार उस रंग की ट्रेक पैंट और टी -शर्ट पहनी। सिर पर उन्होंने एक छोटा -सा मुकुट जैसा बनाया जिस पर प्राकृतिक साधनों का नाम हिंदी और अंग्रेजी में लिखा जो भूमिका वे निभा रहे थे। सभी को इस नाटिका से प्राकृतिक साधनों के बारे में बहुत जानकारी मिली । इस प्रकार यह नाटिका सभी के लिए काफी ज्ञानवर्द्धक रही। साथ ही सबको यह सीख भी मिली की हमें प्राकृतिक साधनों का गलत प्रयोग नहीं करना चाहिए क्योंकि ये बड़ी अमूल्य धरोहर हैं ।
जल, वायु, अग्नि, पृथ्वी और आकाश का वाद-विवाद
पात्र- जल, वायु, अग्नि, पृथ्वी और आकाश
जल- वायु बहिन! आपको मालूम है,यह कम्बख्त मनुष्य मेरे साथ कितना गंदा व्यवहार करता है? अपने गंदे से गंदे शरीर के हिस्से को मेरे लिए प्रयोग करता है । मैं कितना स्वच्छ-पवित्र वस्तु हूँ-इतना ही नहीं , मैं गंदी से गंदी जगह को साफ करता हूँ । गटरों को स्वच्छ करता हूँ । छोटे बच्चों के गंदे और सड़े कपड़ों को मुझसे साफ करते हैं । मुझसे ऋषि, महात्मा, साधु-संत मंदिरों, देवी-देवताओं का स्नान कराते, उनका भोग लगाते हैं, चरणामृत भी मेरे द्वारा ही बनाते हैं । लेकिन यह मनुष्य इतना स्वार्थी और नालायक है कि मेरा प्रयोग गंदे-धंधे में करता है । मैं इनकी इस हरकत से परेशान हूँ । जितने धार्मिक स्थान मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, गिरजाघर, जैन मंदिर आदि को मैं ही पवित्र बनाता हूँ।
वायु- भाई, मेरी स्वच्छता और पवित्रता को नष्ट करने वाले, गंदा बनाने वाले मनुष्य की क्या कहें? इस नालायक ने तो पंचतत्व यानि कि आकाश, वायु, अग्नि, पृथ्वी और जल का विनाश ही कर दिया है । मेरे अस्तित्व को बिगाड़ दिया है । सभी सभ्य लोगों ने जलवायु को गंदा समझ कर वह वातावरण गंदा बना दिया है । उन गंदे स्थानों से निकलते समय नाक-मुँह हाथों और रूमालों से ढंक कर चलते हैं । इस भ्रष्ट मनुष्य के कारण हमें बदनाम होना पड़ता है । हम इस मनुष्य को सब प्रकार से तन्दुरुस्ती और सेहत प्रदान करते हैं । उसको यह पता नहीं, हमारी बदनामी में इस मनुष्य को ही हानि उठानी पड़ती है। पशु-पक्षी तक उत्तम जलवायु से ही जीवित रहते हैं । हम तो मानव से दु:खी हैं ।
पृथ्वी- भाई जल और बहिन वायु, आपके दु:खों की पूरी कथा सुन कर मेरा मन स्वयं दु:खी हुआ-क्योंकि तुम दोनों का दु:ख मेरा दु:ख है । मैं तुम लोगों के कारण ही जीवित हूँ यदि तुम मेरी सहायता के लिए न हो तो , मेरा इस संसार में कोई नहीं । यदि भाई जल की कृपा न हो तो मेरी धूल उड़ जाए, मेरी दो कौड़ी की इज़्ज़त रह जाए । फिर दुनिया वाले मुझ पर रहें कहाँ? जल भाई की कृपा के कारण ही आज सारा संसार मुझ पर बसकर गाँव, शहर, महानगर बसाते हैं , घर , मकान, बड़ि बिल्डिंगों का निर्माण करते हैं ,वे भी आपके ही सहारे से । आपका सहयोग, सहायता और कृपा न हो तो कोई मुझ पर कदम नहीं रख सकता । मेरी पूछ जल भाई के कारण ही है- आप न हों तो मैं पृथ्वी (धरती) उल्लू, कूल्लू, बुल्लू हैं । आज जो हरियावन, सब्ज वातावरण मुझ पर इस मानव को दिखाई देता है- हरी-हरी घास पर चल कर आनन्द लेता है सब जल और वायु के कारण । ये हरे-हरे बाग-बगीचे, वन, जंगल जो हरे-भरे वृक्षों, फल-पौधों से सजे हैं, जीवित हैं ,वे सब आप लोगों की दया है- यह अभिमानी, घमण्डी मनुष्य मुझ पर अकड़ कर छाती फुलाकर जो चलता है, उसे यह मालूम नहीं कि मूर्ख ये सब जल, वायु और पृथ्वी की ही देन है अन्यथा तू है कौन? तेरी क्या शक्ति, क्या बिसात, तेरा क्या अस्तित्व जो तू एक कदम भी घूम सके, चल सके । अपनी आँखों पर से गरूर और घमण्ड के पर्दे को उतार कर फेंक दे-क्या पिद्दी, क्या पिद्दी का शोरबा ।
जल- लेकिन बहिन ! यह ना शुक्र गुज़ार, नालायक, कभी सोचता है कि उसका है क्या! हमारे बलबूते पर ही कूदता-फिरता है। इसका अपना तो कुछ भी नहीं । उसका अस्थिपंजर कहाँ से आया? उसको किसने दी यह काया? वह तुच्छ माया के चक्कर में सब भूलकर ’मैं’ के घमंड में चौड़ा हुआ फिरता है ।
वायु- पृथ्वी बहिन! तुम्हारा संसार में इतना महत्त्व है कि प्रत्येक ज्ञानी तुम्हारी रज को माथे पर लगा कर अपने को धन्य समझते हैं । वे भूरे-भूरि प्रशंसा करते हुए नहीं थकते कि हमें ऐसी धरती माता मिली है कि जिस के आधार पर हम जीवित हैं । तुम यदि नहीं होती तो यह अभिमानी मूरख कहाँ से अन्न उपजाता , कहाँ से अपना और अपने परिवार का पेट भरता ? अरे ये तो भूखों मरता !
जल- पृथ्वी और वायु बहनों! इस खुदगर्ज़, स्वार्थी मनुष्य को तुम्हारी भूरि-भूरि प्रशंसा ही नहीं, आपका गुणगान करना चाहिए । लेकिन न मालूम उसके किस घमण्ड ने तुम्हारे अस्तित्व को भुला दिया है। यह मगरूर इंसान हमारे अस्तित्व को महत्त्व नहीं देता । इसी कारण यह मानव दु:खी है । आज उसकी आंखों के तारे अथवा पशु-पक्षी, जिनका दिया हुआ यह अपने काम में लेता है, उनसे लाभ उठाता है । फिर एक बात और है कि हम सब नि:स्वार्थ भाव से इस स्वार्थी की सेवा करते हैं । हम (जल, वायु, पृथ्वी) इससे लेते क्या हैं? मांगा क्या है? हम सब कुछ इस स्वार्थी-खुदगर्ज को देते ही हैं । मांगा क्या है? हम सब कुछ इस स्वार्थी-खुदगर्ज़ को देते ही हैं । मगर दु:ख इस बात का है कि यह निर्लज्ज हमारे एहसान को एहसान नहीं मानता । वह छाती ठोक कर सब के सामने यह कहता रहता है कि ये सब कुछ कहता रहता है कि ये सब कुछ मैंने बनाया है । मैं ही सबका कर्त्ता हूँ ।
पृथ्वी- बहिन, अग्नि! तुम भी बताओ, मानव तुम्हारे साथ क्या-क्या अनहोनी करता है?
अग्नि- (ज़रा संभलकर) जीजी, क्या कहूँ और क्या न कहूँ- इस मनुष्य ने तो मेरी वह मिट्टी पलीद की है यानि कि बुरी हालत की है । कहना भी व्यर्थ है ।
पृथ्वी-क्यों , ऐसा क्या है?
अग्नि- मनुष्य इतना अत्याचारी और ज़ालिम है कि पहले कण्डों से जो गोबर के उपले हैं से काम लेता था, उसमें गऊमाता के गोबर में पवित्रता के अंश होते थे । उससे मुझे भी कुढ़पन महसूस होता है । फिर, जंगल के पवित्र वृक्षों का प्रयोग करता था, मेरे जलाने के लिए तब भी कहीं तक अच्छा था । फिर झाड़-झंखाड़ का प्रयोग करने लगा । वह भी कहीं उचित था । ये सब कुछ छोड़ विज्ञान की देन लकड़ी के कोयले भी कहीं तक ठीक सिद्ध हुए । मगर इसके बाद मानव ने क्या किया कि पत्थर के कोयलों का प्रयोग शुरु किया- उससे मुझे थोड़ा कष्ट तो हुआ और आस-पास के लोगों को अच्छा नहीं लगा जहाँ तक कि इस मानव नालायक ने भी इसके प्रयोग को पसन्द नहीं किया ।
पृथ्वी-अग्नि बहिन! मानव ने विज्ञान का सहारा लेकर बिजली का आविष्कार किया है । आपका इस ईजाद अथवा खोज में कम असर रहा?
अग्नि- (हंसते हुए) बहिन! इस मनुष्य ने बिजली का आविष्कार क्या किया? इसका अपना इसमें क्या योगदान है?
जल और वायु- (दोनों हंसकर बीच में ) बहिन अग्नि! यह हमारी ही देन है । यदि हम दोनों ने हों तो बिजली का अस्तित्व ही क्या है? बिजली जिसको संस्कृत में विद्युत कहते हैं, यह हम पंचतत्व की ही देन है । मनुष्य ने क्या खाक उत्पादन किया है । लो, हम आज मानव को चैलेंज देते हैं कि हमारे बिना सहयोग के यह बिजली बना तो ले! वहां की चीज़ उठाकर यहां और यहां की वहां उठाकर रखने से कोई आविष्कार थोड़े ही तैयार हो जाता है ।
पृथ्वी- हां, भाई! आपने बात ठीक कही । इस मानव में क्या दम है जो बिना हमारे कोई नई वस्तु तैयार कर सके । हमारे सहयोग और मित्रता के कारण मानव कुछ नहीं कर सकता । हां, यह हमारे अस्तित्व की बर्बादी अवश्य कर देता है । यदि इसमें कोई ज्ञान और गुण है तो पत्थर, लोहा, सोना, चांदी, शीशा आदि धातु बनाकर दिखाए ! बस, खाली इसमें मैं-मैं की धुन है, जो इसके अभिमान का दिखाता है।
वायु- पृथ्वी बहिन! हम चारों तो वाद-विवाद करके अकेले चर्चा कर रहे हैं, उधर सामने हमारा सबसे बड़ा भाई आकाश गुमसुम चुपचाप बैठा है, वे कुछ भी नहीं बोल रहे हैं-हम सबमें सबसे ज्यादा महत्त्व तो आकाश भाई का है । हम सब इसके ही आधार पर जीवित हैं । यह भाई की कृपा न हो तो हमारा अस्तित्व ही व्यर्थ है।
जल-भाई-बहनों ! आकाश भाई का आधार न हो तो मुझको कौन पूछता है । आकाश भाई में बादल बिराजते हैं । बादल द्वारा वर्षा होती है, इससे मेरी (जल की) पूर्ति होती है। बिना आकाश भाई का मेरा कोई आधार और अस्तित्व नहीं ।
आकाश- देखो जी, इस मानव ने हम सबकी बेइज्जती की है, और निरादर किया है- मेरी बिजली तो कभी-कभी अपना रूप दिखाती है, उसमें भी हमारा ही अस्तित्व है, लेकिन अब मानव ने जो बिजली तैयार की है उसमें भी हमारा सबका अंश है-हमारे बिना मानव का अपना कुछ भी नहीं ।
पृथ्वी- परन्तु भाई! मानव को हम अपना सब कुछ अमूल्य अथवा मुफ्त रूप में देते हैं और मानव नीच इनका मूल्य प्राप्त करता है, अपना जीवन चलाता है । हम पांचों (पंच तत्वो) को थोड़ा-सा इसका बदला नहीं देता । कितना खुदगर्ज़ और स्वार्थी है यह नालायक!
जल- मेरी ओर तो निहार कर देखो, मेरे बिना इसका कोई कार्य सम्पन्न नहीं हो सकता । फिर भी मेरा प्रयोग इस बेरहमी और निर्दयता से करता है कि खुदा की पनाह । ईश्वर ही इस नालायक मानव से मुझे बचाए ।
वायु- हम सब इसके विरोध में बोलते हैं-उसको गाली देते हैं । बुरा-भला कहते हैं । लेकिन कितना ही मानव को स्वार्थी, खुदगर्ज़ और मतलबी कहें- फिर भी यह अंश तो अपना ही है। हम इसको अपने से अलग कहाँ तक मानें ।
पृथ्वी- यह बात, तो बहिन! तुमने सही कही-मगर हम पंचतत्व से ही तो बना है यह मानव । कितना भी बुरा है, परन्तु है तो अपना ही ।
आकाश- यह मानव हमारे लिए कितना ही निकृष्ट है, नीच है, फिर भी न हम इससे अलग हो सकते हैं और न यह हम को छोड़ सकता है ।